है, उसे भी पूरा कर दिखाएगा। इन कमीनी चालों से वह अलग ही रहना चाहते थे। ऐसे कुत्सित
कार्य में पुत्र से साठ-गांठ करना उनकी अंतरात्मा को किसी तरह स्वीकार न था। पूछो-इसे
क्यों उठा लाए?
रमा ने धृष्टता से कहा-आप ही का तो हुक्म था।
दयानाथ-झूठ कहते हो।
रमानाथ-तो क्या फिर रख आऊं?
रमा के इस प्रश्न ने दयानाथ को घोर संकट में डाल दिया। झेंपते हुए बोले–अब क्या रख आओगे,कहीं देख ले,तो गजब ही हो जाए। वही काम करोगे,जिसमें जग-हंसाई हो। खड़े क्या हो,संदूकची मेरे बड़े संदूक में रख आओ और जाकर लेट रहो। कहीं जाग पड़े तो बस!
बरामदे के पीछे दयानाथ का कमरा था। उसमें एक देवदार का पुराना संदूक रखा थी रमा ने संदूकची उसके अंदर रख दी और बड़ी फुर्ती से ऊपर चला गया। छत पर पहुंचकर उसने आहट ली,जालपा पिछले पहर की सुखद निद्रा में मग्न थी।
रमा ज्योंही चारपाई पर बैठा,जालपा चौंक पड़ी और उससे चिमट गई। रमा ने पूछा-क्या है,तुम चौक क्यों पड़ीं?
जालपा ने इधर-उधर प्रसन्न नेत्रों से ताककर कहा-कुछ नहीं, एक स्वप्न देख रही थी। तुम बैठे क्यों हो,कितनी रात है अभी?
रमा ने लेटते हुए कहा-सबेरा हो रहा है,क्या स्वप्न देखती थीं?
जालपा–जैसे कोई चोर मेरे गहनों की संदूकची उठाए लिए जाता हो।
रमा का हृदय इतने जोर से धक-धक् करने लगा, मानो उस पर हथौड़े पड़ रहे हैं। खून सर्द हो गया। परंतु संदेह हुआ,कहीं इसने मुझे देख तो नहीं लिया। वह जोर से चिल्ला पड़ा-चोर! चोर!
नीचे बरामदे में दयानाथ भी चिल्ला उठे-चोर! चोर!
जालपा घबड़ाकर उठी। दौड़ी हुई कमरे में गई, झटके से आल्भा खोली। संदूकची वहां न थी? मूर्छित होकर गिर पड़ी।
आठ
सवेरा होते ही दयानाथ गहने लेकर सराफ के पास पहुंचे और हिसाब होने लगा। सराफ के पंद्रह सौ रु० आते थे; मगर वह केवल पंद्रह सौ रु के गहने लेकर संतुष्ट न हुआ। बिके हुए गहनों को वह बट्टे पर ही ले सकता था। बिकी हुई चीज कौन वापस लेता है। जाकड़ पर दिए होते, तो दूसरी बात थी। इन चीजों को तो सौदा हो चुका था। उसने कुछ ऐसी व्यापारिक सिद्धांत की बातें कीं, दयानाथ को कुछ ऐसा शिकंजे में कसा कि बेचारे को हां-हां करने के सिवा और कुछ न सूझा। दफ्तर का बाबू चतुर दुकानदार से क्या पेश पात ? पंद्रह सौ रु. में पच्चीस सौ रु० के गहने भी चले गए, ऊपर से पचास रु० और बाकी रह गए। इस बात पर पिता-पुत्र में कई दिन खूब वाद-विवाद हुआ। दोनों एक दूसरे को दोषी ठहराते रहे। कई दिन आपस में बोलचाल बंद