पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
28 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


रही, मगर इस चोरी का हाल गुप्त रखा गया। पुलिस को खबर हो जाती, तो भंडा फूट जाने का भय था। जालपा से यही कहा गया कि माल तो मिलेगी नहीं,व्यर्थ का झंझट भले ही होगा।जालपा ने भी सोचा,जब भाल ही न मिलेगा, तो रपट व्यर्थ क्यों की जाय।

जालपा को गहनों से जितना प्रेम था,उतना कदाचित् संसार की और किसी वस्तु से न था,और उसमें आश्चर्य की कौन-सी बात थी। जब वह तीन वर्ष की अबोध बालिका थी, उस वक्त उसके लिए सोने के चूड़े बनवाए गए थे। दादी जब उसे गोद में खिलाने लगती,तो गहनों की ही चर्चा करती-तेरा दूल्हा तेरे लिए बड़े सुंदर गहने लाएगा। ठुमक ठुमककर चलेगी।

जालपा पूछती-चांदी के होंगे कि सोने के, दादीजी?

दादी कहती–सोने के होंगे बेटी,चांदी के क्यों लाएगा? चांदी के लाए तो तुम उठाकर उसके मुंह पर पटक देना।

मानकी छेड़कर कहती-चांदी के तो लाएगा ही। सोने के उसे कहां मिले जाते हैं।

जालपा रोने लगती,इस बूढ़ी दादी,मानकी,घर की महरियां,पड़ोसिने और दीनदयाल-सबै हसते।उन लोगों के लिए यह विनोद का अशेष भांडार था।

बालिका जब ज़रा और बड़ी हुई,तो गुड़ियों के ब्याह करने लगी। लड़के की ओर से चढ़ावे जाते,दुलहिन को गहने पहनाती,डोली में बैठाकर विदा करती,कभी-कभी दुलहन गुड़िया अपने गुड़े दूल्हे से गहनों के लिए मान करती,गुड्‍डा बेचारा कहीं-न-कहीं से गहने लाकर स्त्री को प्रसन्न करता था।उन्हीं दिनों बिसाती ने उसे वह चन्द्रहार दिया,जो अब तक उसके पास सुरक्षित था।

जरा और बड़ी हुई तो बड़ी-बूढियों में बैठकर गहनों की बातें सुनने लगी।महिलाओं के उस छोटे-से संसार में इसके सिवा और कोई चर्चा ही न थी। किसने कौन-कौन गहने बनवाए, कितने दाम लगे,ठोस हैं या पोले,जड़ाऊ हैं या सादे,किस लड़की के विवाह में कितने गहने आए–इन्हीं महत्त्वपूर्ण विषयों पर नित्य आलोचना-प्रत्यालोचना,टीका-टिप्पणी होती रहती थी। कोई दूसरा विषय इतना रोचक,इतना ग्राह्य हो ही नहीं सकता था।

इस आभूषण-मंडित संसार में पली हुई जालपा का यह आभूषण-प्रेम स्वाभाविक ही था। महीने भर से ऊपर हो गया। उसकी दशा ज्यों-की-त्यों है। न कुछ ख़ाती-पीती है,न किसी से हंसती-बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य नेत्रों से शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझाकर हार गया,पड़ोसिने समझाकर हार गई, दीनदयाल आकर समझा गए,पर जालपा ने रोग-शय्या न छोड़ी। उसे अब घर में किसी पर विश्‍वास नहीं है,यहां तक कि रमा से भी उदासीन रहती है। वह समझती है,सारा घर मेरी उपेक्षा कर रहा है। सब-के-सब मेरे प्राण के ग्राहक हो रहे हैं। जब इनके पास इतना धन है,तो फिर मेरे गहने क्यों नहीं बनवाते? जिससे हम सबसे अधिक स्नेह रखते हैं,उसी पर सबसे अधिक रोष भी करते हैं। जालपा को सबसे अधिक क्रोध रमानाथ पर था। अगर यह अपने माता-पिता से जोर देकर कहते, तो कोई इनकी बात न टाल सकता, पर यह कुछ कहें भी? इनके मुंह में तो दही जमा हुआ है। मुझसे प्रेम होता, तो यों निश्चित न बैठे रहते। जब तक सारी चीजें न बनवा लेते,रात को नींद आती। मुंह देखे की मुहब्बत हैं,मां-बाप से कैसे कहें,जाएंगे तो अपनी ही ओर,मैं कौन हूं।

वह रमा से केवल खिंची ही न रहती थी, वह कभी कुछ पूछता तो दो-चार जली-कटी सुना देती।'बेचारा अपना-सा मुंह लेकर रह जाता | गरीब अपनी ही लगाई हुई आग में जला