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280:प्रेमचंद रचनावली-5
 

मेम ने चिंतित होकर पूछा-तो क्या हालत अच्छी नहीं है?

"दर्द बहुत हो रहा है।"

"हालत तो अच्छी है?"

"चेहरा पीला पड़ गया है, पसीना....."

"हम पूछते हैं हालत कैसी है? उसका जी तो नहीं डूब रहा है? हाथ-पांव तो ठंडे नहीं हो गए हैं?"

मोटर तैयार हो गई। मेम साहब ने कहा-तुम भी आकर बैठ जाओ। साइकिल कल हमारा आदमी दे आएगा।

अमर ने दीन आग्रह के साथ कहा-आप चलें, मैं जरा सिविल सर्जन के पास होता आऊं। बुलानाले पर लाला समरकान्त का मकान

"हम जानते हैं।"

मेम साहब तो उधर चली, अमरकान्त सिविल सर्जन को बुलाने चला। ग्यारह बज गए थे। सड़कों पर भी सन्नाटा था। और पूरे तीन मील की मंजिल थी। सिविल सर्जन छावनी में रहता था। वहां पहुंचते-पहुंचते बारह का अमल हो आया। सदर फाटक खुलवाने, फिर साहब को इत्तला कराने में एक घंटे से ज्यादा लग गया। साहब उठे तो, पर जाम से बाहर! गरजते हुए बोले- हम इस वक्त नहीं जा सकता।

अमर ने निश्शंक होकर कहा-आप अपनी फीस ही तो लेंगे?

"हमारा रात का फीस सौ रुपये है।"

"कोई हरज नहीं है।"

"तुम फीस लाया है?"

अमर ने डांट बताई-आप हरेक से पेशगी फीस नहीं लेते। लाला समरकान्त उन आदमियों में नहीं हैं जिन पर सौ रुपये का भी विश्वास न किया जा सके। वह इस शहर के सबसे बड़े साहूकार हैं। मैं उनका लड़का हूं।

साहब कुछ ठंडे पड़े। अमर ने उनको सारी कैफियत सुनाई तो चलने पर तैयार हो गए, अमर ने साइकिल वहीं छोड़ी और साहब के साथ मोटर में जा बैठा। आध घंटे में मोटर बुलानाले जा पहुंची। अमरकान्त को कुछ दूर से ही शहनाई की आवाज सुनाई दी! बंदूकें छूट रही थीं। उसका हृदय आनंद से फूल उठा।

द्वार पर मोटर रुकी, तो लाला समरकान्त ने आकर डॉक्टर को सलाम किया और बोले-हुजूर के इकबाल से सब चैन-चान है। पोते ने जन्म लिया है।

उनके जाने के बाद लालाजी ने अमरकान्त को आड़े हाथों लिया-मुफ्त में सौ रुपये की चपत पड़ी। अमरकान्त ने झल्लाकर कहा-मुझसे रुपये ले लीजिएगा। आदमी से भूल हो ही जाती है। ऐसे अवसर पर मैं रुपये का मुंह नहीं देखता।

किसी दूसरे अवसर पर अमरकान्त इस फटकार पर घंटों बिसूरा करता, पर इस वक्त उसका मन उत्साह और आनंद में भरा हुआ था। भरे हुए गेंद पर ठोकरों का क्या असर? उसके जी में तो आ रहा था, इस वक्त क्या लुटा दूं। वह अब एक पुत्र का पिता है। अब कौन उससे हेकड़ी जता सकता है ! वह नवजात शिशु जैसे स्वर्ग से उसके लिए आशा और