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कर्मभूमि:281
 


अमरता का आशीर्वाद लेकर आया है। उसे देखकर अपनी आंखें शीतल करने के लिए वह विकल हो रहा था। ओहो ! इन्हीं आंखों से वह उस देवता के दर्शन करेगा ।

लेडी हूपर ने उसे प्रतीक्षा भरी आंखों से ताकते देखकर कहा-बाबूजी, आप यों बालक को नहीं देख सकेंगे। आपको बड़ा-सा इनाम देना पड़ेगा।

अमर ने संपन्न नम्रता के साथ कहा-बालक तो आपका है। मैं तो केवल आपका सेवक हूं। जच्चा की तबीयत कैसी है?

"बहुत अच्छी। अभी सो गई है।'

"बालक खूब स्वस्थ है?"

"हां, अच्छा है। बहुत सुंदर। गुलाब का पुतला-सा।"

यह कहकर सौरगृह में चली गई। महिलाएं तो गाने-बजाने में मान थीं। मुहल्ले की पचासों स्त्रियां जमा हो गई थी और उनका संयुक्त स्वर, जैसे एक रस्सी की भांति स्थूल होकर अमर के गले को बांधे लेता था। उसी वक्त लेडी हूपर ने बालक को गोद में लेकर उसे सौरगृह की तरफ आने का इशारा किया। अमर उमंग से भरा हुआ चला, पर सहसा उसका मन एक विचित्र भय से कातर हो उठा। वह आगे न बढ़ सका। वह पापी मन लिए हुए इस वरदान को कैसे ग्रहण कर सकेगा। वह इस वरदान के योग्य है ही कब? उसने इसके लिए कौन सी तपस्या की है? यह ईश्वर की अपार दया है जो उन्होंने यह विभूति उसे प्रदान की। तुम कैसे दयालु हो, भगवान् ।

श्यामल क्षितिज के गर्भ से निकलने वाली बाल-ज्योति की भांति अमरकान्त को अपने अंत:करण की सारी क्षुद्रता, सारी कलुषता के भीतर से एक प्रकाश-सा निकलता हुआ जान पड़ा, जिसने उसके जीवन की रजत-शोभा प्रदान कर दी। दीपकों के प्रकाश में, संगीत के स्वरों में, गगन की तारिकाओं में उसी शिशु की छवि थी। उसी का माधुर्य था, उसी का नृत्य था।

सिल्लो आकर रोने लगी। अमर ने पूछा-तुझे क्या हुआ है? क्यों रोती है?

सिल्लो बोली- मेम साहब ने मुझे भैया को नहीं देखने दिया, दुत्कार दिया। क्या मैं बच्चे को नजर लगा देती? मेरे बच्चे थे, मैंने भी बच्चे पाले हैं। मैं जरा देख लेती तो क्या होता?

अमर ने हंसकर कहा-तू कितनी पागल है, सिल्लो । उसने इसलिए मना किया होगा कि कहीं बच्चे को हवा न लग जाए। इन अंग्रेज डॉक्टरनियों के नखरे भी तो निराले होते हैं। समझती-समझाती नहीं, तरह-तरह के नखरे बधारती हैं, लेकिन उनका राज तो आज ही के दिन न। फिर तो अकेली दाई रह जाएगी। तू ही तो बच्चे को पालेगी, दूसरा कौन पालने वाला बैठा हुआ है?

सिल्लो को आंसू-भरी आंखें मुस्करा पड़ी। बोली-मैंने दूर से देख लिया। बिल्कुल तुमको पड़ा है। रंग बहूजी का है ! मैं कंठी ले लूंगी, कहे देती हूं !

दो बज रहे थे। उसी वक्त लाला समरकान्त ने अमर को बुलाया और बोले -नींद तो अब क्या आएगी? बैठकर कल के उत्सव का एक तखमीना बना लो। तुम्हारे जन्म में तो कारबार फैला न था, नैना कन्या थी। पच्चीस वर्ष के बाद भगवान् ने यह दिन दिखाया है।कुछ लोग नाच- -मुजरे का विरोध करते हैं। मुझे तो इसमें कोई हानि नहीं दीखती। खुशी