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कर्मभूमि: 285
 

युवक ने इधर-उधर संशय-भरी आंखों से देखा, मानो इन आदमियों के सामने वह अपने विषय में कुछ कहना नहीं चाहता, और बोला-मैं तो ठाकुर हूं। यहां से छ: सात कोस पर एक गांव है महुली, वहीं रहता है।

डॉक्टर साहब ने उसे तीव्र नेत्रों से देखा, और समझ गए। बोले-अच्छा, वही गांव, जो सड़क के पश्चिम तरफ है। आओ मेरे साथ।

डॉक्टर साहब उसे लिए पास वाले बगीचे में चले गए और एक बेंच पर बैठकर उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा कि अब वह उसकी कथा सुनने को तैयार है।

युवक ने सकुचाते हुए कहा—इस मुकदमे में जो औरत है, वह इसी बालक की मां है। घर में हम दो प्राणियों के सिवा कोई और नहीं है। मैं खेती-बाड़ी करता हूं। वह बाजार में कभी-कभी सौदा-सुलुफ लाने चली जाती थी। उस दिन गांव वालों के साथ अपने लिए एक साड़ी लेने गई थी। लौटती बार वह वारदात हो गई, गांव के सब आदमी छोड़कर भाग गए। उस दिन से वह घर नहीं गई। मैं कुछ नहीं जानता, कहां घूमती रही । मैंने भी उसको खोज नहीं की। अच्छा ही हुआ कि वह उस समय घर नहीं गई, नहीं हम दोनों में एक की या दोनों की जान जाती। इस बच्चे के लिए मुझे विशेष चिंता थी। बार-बार मां को खोजता, पर मैं इसे बहलाता रहता। इमी की नींद सोता और इसी की नींद जागता। पहले तो मालूम होता था, बचेगा नहीं, लेकिन भगवान् को दया थी। धीरे-धीरे मां को भूल गया। पहले मैं इसका बाप था, अब तो मां-बाप दोनों मैं ही हूं। बाप कम, मां ज्यादा। मैंने मन में समझा था, वह कहीं डूब मरी होगी। गांव के लोग कभी कभी कहते-उसकी तरह की एक औरत छावनी की ओर है, पर मैं कभी उन पर विश्वास न करता।

जिस दिन मुझे खबर मिली कि लाला समरकान्त की दूकान पर एक औरत ने दो गोरों को मार डाला और उस पर मुकदमा चल रहा है, तब मैं समझ गया कि वही है। उस दिन से हर पेशी पर आता हूं और सबके पीछे खड़ा रहता हूं। किसी से कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती। आज मैंने समझा, अब उससे सदा के लिए नाता टूट रहा है, इसलिए बच्चे को लेता आया कि इसके देखने की उसे लालसा न रह जाए। आप लोगों ने तो बहुत खरच-बरच किया, पर भाग्य में जो लिखा था, वह कैसे टलता? आपसे यही कहना है कि जज साहब फैसला सुना चुके तो एक छिन के लिए उससे मेरी भेंट करा दीजिागा। मैं आपसे सत्य कहता हूं बाबूजी, वह अगर बरी हो जाये तो मैं उसके चरण धो-धोकर पीऊं और घर ले जाकर उसकी पूजा करूं। मेरे भाई-बंद अब भी नाक-भौं सिकोड़ेंगे, पर जब आप लोग जैसे बड़े-बड़े आदमी मेरे पक्ष में हैं, तो मुझे बिरादरी की परवाह नहीं।

शान्तिकुमार ने पूछा-जिस दिन उसका बयान हुआ, उस दिन तुम थे?

युवक ने सजल नेत्र होकर कहा-हां बाबूजी, था। सबके पीछे द्वार पर खड़ा रो रहा था। यही जी में आता था कि दौड़कर चरणों से लिपट जऊं और कहूं-मुन्नी, मैं तेरा सेवक हूं, तू अब तक मेरी स्त्री थी आज से मेरी देवी है। मुन्नी ने मेरे पुरखों को तार दिया बाबूजी, और क्या कहूं?

शान्तिकुमार ने फिर पूछा–मान लो, आज वह छूट जाए, तो तुम उसे घर ले जाओगे?

युवक ने पुलकित कंठ से कहा-यह पूछने की बात नहीं है, बाबूजी । मैं उसे आंखों