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कर्मभूमि:287
 


पहने झंडियां लिए जमा हो गए। महिलाओं की संख्या एक हजार से कम न थी। निश्चित किया गया था कि जुलूस गंगा-तट तक जाए, वहां एक विराट् सभा हो, मुन्नी को एक थैली भेंट की जाए और सभा भंग हो जाए।

मुन्नी कुछ देर तक तो शांत भाव से यह समारोह देखती रही, फिर शान्तिकुमार से बोली -बाबूजी, आप लोगों ने मेरा जितना सम्मान किया, मैं उसके योग्य नहीं थी; अब मेरी आपसे यही विनती है कि मुझे हरिद्वार या किसी दूसरे तीर्थ-स्थान में भेज दीजिए। वहीं भिक्षा मांगकर, यात्रियों की सेवा करके दिन काटूंगी। यह जुलूस और यह धूम-धाम मुझ-जैसी अभागिन के लिए शोभा नहीं देता। इन सभी भाई-बहनों से कह दीजिए, अपने-अपने घर जाए। मैं धूल में पड़ी हुई थी। आप लोगों ने मुझे आकाश पर चढ़ा दिया। अब उससे ऊपर जाने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है, सिर में चक्कर आ जाएगा। मुझे यहीं से स्टेशन भेज दीजिए। आपके पैरों पड़ती हूं।

शान्तिकुमार इस आत्म-दमन पर चकित होकर बोले- यह कैसे हो सकता है, बहन। इतने स्त्री-पुरुष जमा हैं; इनकी भक्ति और प्रेम का तो विचार कीजिए। आप जुलूस में न जाएंगी, तो इन्हें कितनी निराशा होगी। मैं तो समझता हूं कि यह लोग आपको छोड़कर कभी न जाएंगे।

"आप लोग मेरा स्वांग बना रहे हैं।"

"ऐसा न कहो बहन । तुम्हारा सम्मान करके हम अपना सम्मान कर रहे हैं। और तुम्हें हरिद्वार जाने की जरूरत क्या है? तुम्हारा पति तुम्हें अपने साथ ले जाने के लिए आया हुआ है।"

मुन्नी ने आश्चर्य से डॉक्टर की ओर देखा--मेरा पति । मुझे अपने साथ ले जाने के लिए आया हुआ है? आपने कैसे जाना?

"मुझसे थोड़ी देर पहले मिला था।"

"क्या कहता था?"

"यही कि मैं उसे अपने साथ ले जाऊंगा और उसे अपने घर की देवी समझूगा।"

"उसके साथ कोई बालक भी था?"

"हां, तुम्हारा छोटा बच्चा उसकी गोद में था।"

"बालक बहुत दुबला हो गया होगा?"

"नहीं, मुझे वह हृष्ट-पुष्ट दीखता था।"

"प्रसन्न भी था?"

"हां, खूब हंस रहा था।"

"अम्मा-अम्मां तो न करता होगा?"

"मेरे सामने तो नहीं रोया।"

"अब तो चाहे चलने लगा हो?"

"गोद में था पर ऐसा मालूम होता था कि चलता होगा।"

"अच्छा, उसके बाप की क्या हालत थी? बहुत दुबले हो गए हैं?"

"मैंने उन्हें पहले कब देखा था? हां, दुःखी जरूर थे। यहीं कहीं होंगे, कहो तो तलाश करूं। शायद खुद आते हों।"