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288:प्रेमचंद रचनावली-5
 


मुन्नी ने एक क्षण के बाद सजल नेत्र होकर कहा--उन दोनों को मेरे पास न आने दीजिएगा, बाबूजी । मैं आपके पैरों पड़ती हूं। इन आदमियों से कह दीजिए अपने-अपने घर जाएं। मुझे आप स्टेशन पहुंचा दीजिए। मैं आज ही यहां से चली जाऊंगी। पति और पुत्र के मोह में पड़कर उनका सर्वनाश न करूंगी। मेरा यह सम्मान देखकर पतिदेव मुझे ले जाने पर तैयार हो गए होंगे; पर उनके मन में क्या है, यह मैं जानती हूं। वह मेरे साथ रहकर संतुष्ट नहीं रह सकते। मैं अब इसी योग्य हूं कि किसी ऐसी जगह चली जाऊं, जहां मुझे कोई न जानता हो । वहीं मजूरी करके या भिक्षा मांगकर अपना पेट पालूंगी।

वह एक क्षण चुप रही। शायद देखती कि डॉक्टर साहब क्या जवाब देते हैं। जब डॉक्टर साहब कुछ न बोले तो उसने ऊंचे, कांपते स्वर में लोगों से कहा-बहनो और भाइयो । आपने मेरा जो सत्कार किया है, उसके लिए आपको कहां तक बड़ाई करूं? आपने एक अभागिनी को तार दिया। अब मुझे जाने दीजिए। मेरा जुलूस निकालने के लिए हठ न कीजिए। मैं इसी योग्य हूं कि अपना काला मुंह छिपाए किसी कोने में पड़ी रहूं। इस योग्य नहीं हूं कि मेरी दुर्गति का माहात्म्य किया जाए।

जनता ने बहुत शोर-गुल मचाया, लोडरों ने समझाया, देवियों ने आग्रह किया; पर मुन्नी जुलूस पर राजी न हुई और बराबर यही कहती रही कि मुझे स्टेशन पर पहुंचा दो। आखिर मजबूर होकर डॉक्टर साहब ने जनता को विदा किया और मुन्नी को मोटर पर बैठाया।

मुन्नी ने कहा-अब यहां से चलिए और किसी दूर के स्टेशन पर ले चलिए, जहां यह लोग एक भी न हों।

शान्तिकुमार ने इधर-उधर प्रतीक्षा की आंखों से देखकर कहा-इतनी जल्दी न करो बहन, तुम्हारा पति आता ही होगा। जब यह लोग चले जाएंगे, तब वह जरूर आएगा।

मुन्नी ने अशांत भाव से कहा-मैं उनसे नहीं मिलना चाहती बाबूजी, कभी नहीं। उनके मेरे सामने आते ही मारे लज्जा के मेरे प्राण निकल जाएंगे। मैं कह सकती हूं, मैं मर जाऊंगी। आप मुझे जल्दी से ले चलिए। अपने बालक को देखकर मेरे हृदय में मोह की ऐसी आंधी उठेगी कि मेरा सारा विवेक और विचार उसमें तृण के समान उड़ जाएगा। उस मोह में भूल जाऊंगी कि मेरा कलंक उनके जीवन का सर्वनाश कर देगा। मेरा मन न जाने कैसा हो रहा है? आप मुझे जल्दी यहां से ले चलिए। मैं उस बालक को देखना नहीं चाहती, मेरा देखना उसका विनाश है।

शान्तिकुमार ने मोटर चला दी; पर दस ही बीस गज गए होंगे कि पीछे से मुन्नी का पति बालक को गोद में लिए दौड़ता और 'मोटर रोको । मोटर रोको ।' पुकारता चला आता था। मुन्नी की उस पर नजर पड़ी। उसने मोटर की खिड़की से सिर निकालकर हाथ से मना करते हुए चिल्लाकर कहा- नहीं-नहीं, तुम जाओ, मेरे पीछे मत आओ । ईश्वर के लिए मत आओ।

फिर उसने दोनों बाहें फैला दी, मानो बालक को गोद में ले रही हो और मूर्च्छित होकर गिर पड़ी।

मोटर तेजी से चली जा रही थी, युवक ठाकुर बालक को लिए खड़ा रो रहा था। कई हजार स्त्री-पुरुष मोटर की तरफ ताक रहे थे।