पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मभूमि:289
 

तेरह


मुन्नी के बरी होने का समाचार आनन-फानन सारे शहर में फैल गया। इस फैसले की आशा बहुत कम आदमियों को थी। कोई कहता था-जज साहब की स्त्री ने पति से लड़कर फैसला लिखाया। रूठकर मैके चली जा रही थीं। स्त्री जब किसी बात पर अड़ जाय, तो पुरुष कैसे नहीं कर दे? कुछ लोगों का कहना था --सरकार ने जज साहब को हुक्म देकर फैसला कराया है, क्योंकि भिखारिन को सजा देने मे शहर में दंगा हो जाने का भय था। अमरकान्त उस समय भोज के सरंजाम करने में व्यस्त था, पर यह खबर पा जरा देर के लिए सब कुछ भूल गया और इस फैसले का सारा श्रेय खुद लेने लगा। भीतर जाकर रेणुकादवी से बोला-आपने देखा अम्मांजी, मैं कहता न था, उसे बरी कराके दम लुगा, वही हुआ। वकीलों और गवाहों के साथ कितनी माथा- पच्ची करनी पड़ी है कि मेरा दिल ही जानता है। बाहर आकर मित्रों से और सामने के दूकानदारों से भी उसने यही डींग मारी।

एक मित्र ने कहा--औरत है बड़ी धुन की पक्की। शौहर के साथ न गई न गई । बेचारा पैरों पड़ता रह गया।

अमरकान्त ने दार्शनिक विवेचना के भाव में कहा--जो काम खुद न देखो, वही चौपट हो जाता है। मैं तो इधर फंस गया। उधर कि से इतना भी न हो सका कि उस औरत को समझाता : मैं होता, तो मजाल थी कि वह यों चली जाती। मैं जानता कि यह हाल होगा, तो सब काम छोड़कर जाता और उसे समझाता। मैंने तो समझा डॉक्टर साहब और बीसों आदमी हैं, मेरे न रहने से ऐसा क्या घी का घड़ा लुढ़का जाता है, लेकिन वहा किसी को क्या परवाह ! नाम तो हो गया। काम हो या जहन्नुम में जाय ।

लाला समरकान्त ने नाच- तमाशे और दावत में खूब दिल खोलकर खर्च किया। वही अमरकान्त जो इन मिथ्या व्यवहारों की आलोचना करते कभी न थकता था, अब मुंह तक न खोलता था, बल्कि उलटे और बढ़ावा देता था-- जो संपन्न हैं, वह ऐसे शुभ अवसर पर न खर्च करेंगे, तो कब करेंग? धन की यही शोभा है। हां, घर फूंककर तमाश न देखना चाहिए।

अमरकान्त को अब घर से विशेष घनिष्ठता होती जाती थी। अब वह विद्यालय तो जाने लगा था, पर जलसों और सभाओं से जी चुराता रहता था। अब उसे लेन-देन से उतनी घृणा न थी। शाम- सबेरे बराबर दूकान पर आ बैठता और बड़ी तंदही से काम करता। स्वभाव में कुछ कृपणता भी आ चली थी। दु:खी जनों पर अब भी दया आती थी, पर वह दूकान की बंधी हुई कौड़ियों का अतिक्रमण न करने पाती। इस अल्पकाय शिशु ने ऊंट के नन्हे-स नकेल की भांति उसके जीवन का संचालन अपने हाथ में ले लिया था। मानो दीपक के सामने एक भुनगे ने आकर उसकी ज्योति को संकुचित कर दिया था।

तीन महीने बीत गए थे। संध्या का समय था। बच्चा पालने में सो रहा था! सुखदा हाथ में पंखिया लिए एक मोड़ पर बैठी हुई थी। कृशांगी गर्भिणी मातृत्व के तेज और शक्ति से जैसे खिल उठी थी। उसके माधुर्य में किशोरी की चपलता न थी, गर्भिणी की आलस्यमय कातरता न थी, माता का शांत तृप्त मंगलमय विलास था।

अमरकान्त कॉलेज से सीधे घर आया और बालक को संचित नेत्रों से देखकर