पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/२९

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गबन : 29
 


जाता था। अगर वह जानता कि उन डींगों का यह फल होगा,तो वह जबान पर मुहर लगा लेता। चिंता और ग्लानि उसके हृदय को कुचले डालती थी। कहां सुबह से शाम तक हंसी कहकहे,सैर-सपाटे में कटते थे,कहां अब नौकरी की तलाश में ठोकरें खाता फिरता था। सारी मस्ती गायब हो गई। बार-बार अपने पिता पर क्रोध आता,यह चाहते तो दो-चार महीने में सब रुपये अदा हो जाते,मगर इन्हें क्या फिक्र!मैं चाहे मर जाऊं पर यह अपनी टेक न छोड़ेंगे। उसके प्रेम से भरे हुए,निष्कपट हृदय में आग-सी सुलगती रहती थी। जालपा का मुरझाया हुआ मुख देखकर उसके मुंह से ठंडी सांस निकल जाती थी। वह सुखद् प्रेम-स्वप्‍न इतनी जल्द भंग हो गया,क्या वे दिन फिर कभी आएंगे? तीन हजार के गहने कैसे बनेंगे? अगर नौकर भी हुआ,तो ऐसा कौन-सा बड़ी ओहदा मिल जाएगा? तीन हजार तो शायद तीन जन्म में भी न जमा हों।वह कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहता था, जिसमें वह जल्द-से-जल्द अतुल संपत्ति का स्वामी हो जाय। कहीं उसके नाम कोई लाटरी निकल आती ! फिर तो वह जालपा को आभूषणों से मढ़ देता। सबसे पहले चन्द्रहार बनवाता। उसमें हीरे जड़े होते। अगर इस वक्त उसे जाली नोट बनाना आ जाता तो अवश्य बनाकर चला देता। एक दिन वह शाम तक नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता रहा। शतरंज की बदौलत उसका कितने ही अच्छे-अच्छे आदमियों से परिचय था,लेकिन वह संकोच और डर के कारण किसी से अपनी स्थिति प्रकट न कर सकता था। यह भी जानता था कि यह मान-सम्मान उसी वक्त तक है जब तक किसी के समाने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाता। यह आन टूटी,फिर कोई बात भी न पूछेगा। कोई ऐसा भलामानुस न दीखता था,जो कुछ बिना कहे ही जान जाए,और उसे कोई अच्छी-सी जगह दिला दे। आज उसका चित्त बहुत खिन्‍न था। मित्रों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि एक-एक को फटकारे और आएं तो द्वार से दुत्कार दे। अब किसी ने शतरंज खेलने को बुलाया,तो ऐसी फटकार सुनाऊंगा कि यचा याद करें,मगर वह जरा गौर करता तो उसे मालूम हो जाता कि इस विषय में मित्रों का उतना दोष न था,जितना खुद उसका कोई ऐसा मित्र न था,जिससे उसने बढ़-बढ़कर बातें न की हों। यह उसकी आदत थी। घर की असली दशा को वह सदैव बदनामी की तरह छिपाता रहा। और यह उसी का फल था कि इतने मित्रों के होते हुए भी वह बेकार था। वह किसी से अपनी मनोव्यथा न कह सकता था और मनोव्यथा सांस की भाति अंदर घुटकर असह्य हो जाती है। घर में आकर मुंह लटकाए हुए बैठ गया।

जागेश्वरी ने पानी लाकर रख दिया और पूछा–आज तुम दिनभर कहां रहे? लो हाथ- मुंह धो डालो।

रमा ने लोटा उठाया ही था कि जालपा ने आकर उग्र भाव से कहा- मुझे मेरे घर पहुंचा दो,इसी वक्त।

रमा ने लोटा रख दिया और उसकी ओर इस तरह ताकने लगा,मानो उसकी बात समझ में न आई हो।

जागेश्वरी बोली-भला इस तरह कहीं बहू-बेटियां विदा होती हैं। कैसी बात कहती हो, बहू? जालपा-मैं उन बहू-बेटियों में नहीं हूं। मेरा जिस वक्त जो चाहेगा,जाऊंगी,जिस वक्त जी चाहेगा,आऊंगी। मुझे किसी का डर नहीं है। जब यहां कोई मेरी बात नहीं पूछता, तो मैं भी किसी को अपना नहीं समझती। सारे दिन अनाथों की तरह पड़ी रहती हैं। कोई झांकता तक