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290:प्रेमचंद रचनावली-5
 


बोला-अब तो ज्वर नहीं है।

सुखदा ने धीरे से शिशु के माथे पर हाथ रखकर कहा- नहीं, इस समय तो नहीं जान पड़ता। अभी गोद में सो गया था, तो मैंने लिटा दिया।

अमर ने कुर्ते के बटन खोलते हुए कहा--मेरा तो आज वहां बिल्कुल जी न लगा। मैं तो ईश्वर से यह प्रार्थना करता हूं कि मुझे संसार की और कोई वस्तु न चाहिए, यह बालक कुशल से रहे। देखो कैसे मुस्करा रहा है।

सुखदा ने मीठे तिरस्कार से कहा-तुम्हीं ने देख-देखकर नजर लगा दी है।

"मेरा जी तो चाहता है, उसका चुंबन ले लूं।"

"नहीं-नहीं, सोते हुए बच्चों का चुंबन न लेना चाहिए।"

सहसा किसी ने ड्योढी में आकर पुकारा। अमर ने जाकर देखा, तो बुढ़िया पठानिन लठिया के सहारे खड़ी है। बोला--आओ पठानिन, तुमने तो सुना होगा, घर में बच्चा हुआ है?

पठानिन ने भीतर आकर कहा-अल्लाह करे जुग जुग जिए और मेरी उम्र पाए। क्यों बेटा ! सारे शहर को नेवता हुआ और हमें पूछे तक न गए। क्या हमीं सबसे गैर थे? अल्लाह जानता है, जिस दिन यह खुशखबरी सुनी, दिल से दुआ निकली कि अल्लाह इसे सलामत रखे।

अमर ने लज्जित होकर कहा-हां, यह गलती मुझसे हुई पठानिन, मुआफ करो। आओ, बच्चे को देखा। आज इसे न जाने क्यों बुखार हो आया है?

बुढ़िया दबे पांव आंगन में होती हुई सामने के बरामदे में पहुंची और बहू को दुआएं देती हुई बच्चे को देखकर बोली-कुछ नहीं बेटा, नजर का फसाद है। एक ताबीज दिए देती हूं, अल्लाह चाहेगा, अभी हंसने-खेलने लगेगा।

सुखदा ने मातृत्व-जनित नम्रता से बुढ़िया के पैरों को आंचल से स्पर्श किया और बोली-चार दिन भी अच्छी तरह नहीं रहता, माता । घर में कोई बड़ी-बूढी तो है नहीं। मैं क्या जानूं, कैसे क्या होता है? मेरी अम्मा हैं, पर वह रोज तो यहां नहीं आ सकतीं, न मैं ही रोज उनके पास जा सकती हूं।

बुढ़िया ने फिर आशीर्वाद दिया और बोली-जब काम पड़े, मुझे बुला लिया करो बेटा, मैं और किस दिन के लिए जीती हूँ? जरा तुम मेरे साथ चले चलो भैया, मैं ताबीज दे दूं।

बुढ़िया ने अपने सलूके की जेब से एक रेशमी कुर्ता और टोपी निकाली और शिशु के सिराहने रखते हुए बोली-यह मेरे लाल की नजर है बेटा, इसे मंजूर करो। मैं और किस लायक हूं? सकीना कई दिन से सीकर रखे हुए थी, चला नहीं जाता बेटा, आज बड़ी हिम्मत करके आई हूं।

सुखदा के पास संबंधियों से मिले हुए कितने अच्छे-से-अच्छे कपड़े रखे हुए थे, पर इस सरल उपहार से उसे जो हार्दिक आनंद प्राप्त हुआ, वह और किसी उपहार से न हुआ था, क्योंकि इसमें अमीरी का गर्व, दिखावे की इच्छा या प्रथा की शुष्कता न थी। इसमें एक शुभचिंतक की आत्मा थी, प्रेम था और आशीर्वाद था।

बुढ़िया चलने लगी, तो सुखदा ने उसे एक पोटली में थोड़ी-सी मिठाई दी, पान खिलाए और बरौठे तक उसे विदा करने आई। अमरकान्त ने बाहर आकर एक इक्का किया और बुढ़िया