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कर्मभूमि:297
 


था-ऐसी क्रांति में, जो सर्वव्यापक हो, जो जीवन के मिथ्या आदशों का, झुठे सिद्धांतों का, परिपाटियों का अंत कर दे, जो एक नए युग की प्रवर्तक हो, एक नई सृष्टि खड़ी कर दे, जो मिट्टी के असंख्य देवताओं को तोड़-फोड़कर चकनाचूर कर दे, जो मनुष्य को धन और धर्म के आधार पर टिकने वाले राज्य के पंजे से मुक्त कर दे। उसके एक-एक अणु से क्रान्ति! क्रान्ति।' की आवाज सदा निकलती रहती थी, लेकिन उदार हिन्द-समाज उस वक्त तुक किसी से नहीं बोलता, जब तक उसके लोकाचार पर खुल्लम-खुला आघात न हो। कोई क्रांति नहीं, क्रांति के बाबा का ही उपदेश क्यों न करे, उसे परवाह नहीं होती, लेकिन उपदेश की सीमा के बाहर व्यवहार क्षेत्र में किसी ने पांव निकाला और समाज ने उसकी गर्दन पकड़ी। अमर की क्रांति अभी तक व्याख्यानों और लेधों तक सीमित थी। डिग्री की परीक्षा समाप्त होते ही वह व्यवहार-क्षेत्र में उतरना चाहता था। पर अभी परीक्षा को एक महीना बाकी ही था कि एक ऐसी घटना हो गई, जिसने उसे मैदान में आने को मजबूर कर दिया। यह सकीना की शादी थी।

एक दिन संध्या समय अमरकान्त दूकान पर बैठा हुआ था कि बुढिया सखदा की चिकनी की साड़ी लेकर आई और अमर से बोली-बेटा, अल्ला के फजल से सकीना की शादी ठीक हो गई है। आठवीं को निकाह हो जाएगा। और तो मैंने सब सामान जमा कर लिया है, पर कुछ रूप” हे मदद करना। अमर की नाड़ियों में जैसे रक्त न था। हकलाकर बोला- सकीना की शादी! ऐसी क्या जल्दी थी?

"क्या करती बेटा, गुजर तो नहीं होता, फिर जवान लड़को! बदनामी भी तो है।"

"सकीना भी राजी है?"

बुढिया ने सरल भाव से कहा--लड़कियां कहीं अपने मुंह से कुछ कहती हैं; बेटा? वह तो नहीं-नहीं किए जाती है।

अमर ने गरजकर कहा--फिर भी तुम शादी किए देती हो? फिर गंभलकर बोला-रुपये के लिए दादा से कहो।

"तुम मेरी तरफ से सिफारिश कर देना बेटा, कह तो मैं आप लूंगी।"

"मैं सिफारिश करने वाला कौन होता हूं? दादा तुम्हें जितना जानते हैं, उतना मैं नहीं जानती।"

बुढ़िया को वहीं खड़ी छोड़कर, अमर बदहवास सलीम के पास पहुंचा। सलीम ने उसकी बौखलाई हुई सूरत देखकर पूछा-खैर तो है? बदहवारी क्यों हो?

अमर ने संयत होकर कहा-बदहवास तो नहीं हूं। तुम खुद बदहवास होगे। “अच्छा तो आओ, तुम्हें अपनी ताजी गजल सुनाऊ। ऐसे-ऐसे शैर निकाले हैं कि फड़क न जाओ तो मेरा जिम्मा।"

अमरकान्त की गर्दन में जैसे फांसी पड़ गई, पर कैसे कहे-मेरी इच्छा नहीं है। सलीम ने मतला पढा :

बहला के सवेरा करते हैं इस दिल को उन्हीं की बातों में,
दिल जलता है अपनी जिनकी तरह, बरसात की भीगी रातों में।