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कर्मभूमि: 307
 


माना कि दरख्तों के नीचे ही मदरसा लगे, लेकिन वह बाग कहां है? कोई ऐसी जगह तो चाहिए ही जहां लड़के बैठकर पढ़ सके। लड़कों को किताबें, कागज चाहिए, बैठने को फर्श चाहिए, डोल-रस्सी चाहिए। या तो चंदे से आए, पर कोई कमाकर दे। सोचो, जो आदमी अपने उसूल के खिलाफ नौकरी करके एक काम की बुनियाद् डालता है, वह उसके लिए कितनी कुरबानी कर रहा है। तुम अपने वक्त की कुरबानी करते हो। वह अपने जमीर तक की कुरबानी कर देता है। मैं तो ऐसे आदमी को कहीं ज्यादा इज्जत के लायक समझती हूं।

पठानिन ने कहा- तुम इस छोकरी की बातों में न आ जाना बेटा, जाकर घर का धंधा देखो, जिससे गृहस्थी का निर्वाह हो। यह सैलानीपन उन लोगों को चाहिए, जो घर के निखट्टू हैं। तुम्हें अल्लाह ने इज्जत दी है, मर्तबा दिया है, बाल-बच्चे दिए हैं। तुम इन खराफातों में न पड़ो।

अमर को अब टोपियां बेचने से फुर्सत मिल गई थी। बुढ़िया को रेणुकादेवी के द्वारा चिकन का काम इतना ज्यादा मिल जाता था कि टोपियां न काढता? सलीम के घर से कोईन-कोई काम आता ही रहता था। उसके जरिए से और घरों से भी काफी काम मिल जाता था। सकीना के घर में कुछ खुशहाली नजर आती थी। घर की पुताई हो गई थी, द्वार पर नयी परदा पड़ गया था, दो खाटें नई आ गई थीं, खाटों पर दरियां भी नई थीं, कई बरतन नए आ गए थे। क५- १ते की भी कोई शिकायत न धी। उर्दू का एक अजबार भी खाट पर रखा हुआ था। पठानिन को अपने अच्छे दिनों में भी इमसे ज्यादा समदिन हुई थी। बस, उसे अगर कोई गम था, तो यह कि सकीना शादी करने पर राजी न होती थी।

अमर यहां से चला, तो अपनी भूल पर लज्जित थी। सकीना के एक ही वाक्य ने उसके मन की सारी शंका शांत कर दी थी। डॉक्टर साहब से उसकी श्रद्धा फिर उतनी ही गहरी हो गई थी। सकीना की बुद्धिमत्ता, विचार- पौष्ठव, सूझे और निर्भीकता ने तो चकित और मुग्ध कर दिया था। सकीना उसका परिचय जितना ही गहरा होता था, उतना ही उसका असर भी गहरा होता था। सुखदा अपनी प्रतिभा और गरिमा से उस पर शासन करती थी। वह शासन उसे अप्रिय था। सकीना अपनी नम्रता और मधुरता से उस पर शासन प्रता थी। वह शासन उसे प्रिय था। सुखदा में अधिकार का गर्व था। सकोना में समर्पण की दीनता थी। सुखदा अपने को पति से बुद्धिमान् और कुशल समझती थी। सकीना समझती थी, मैं इनके आगे क्या हूं?

डॉक्टर साहब ने मुस्कराकर पूछा-तो तुम्हारा यहीं निश्चय है कि मैं इस्तीफा दे दें? वास्तव में मैंने इस्तीफा लिख रखा है और कल दे दूंगा। तुम्हारा सहयोग मैं नहीं खो सकता। मैं अकेला कुछ भी न कर सकेंगा। तुम्हारे जाने के बाद मैंने ठंडे दिल से सोचा तो मालूम हुआ, मैं व्यर्थ के मोह में पड़ा हुआ है। स्वामी दयानन्द के पास क्या था जब उन्होंने आर्यसमाज की बुनियाद डाली?

अमरकान्त भी मुस्कराया—नहीं, मैंने ठंडे दिन से सोचा तो मालूम हुआ कि मैं गलती पर था। जब तक रुपये का कोई माकूल इंतजाम न हो जाए, आपको इस्तीफा देने की जरूरत नहीं।

डॉक्टर साहब ने विस्मय से कहा-तुम व्यंग्य कर रहे हो?
"नहीं, मैंने आपसे बेअदबी की थी उसे क्षमा कीजिए।"