पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/३१

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गबन : 31
 



बाद आज उसे प्रसन्न करने का मौका तो मिला। बोला प्रिये, तम्हारा ख्याल बहुत ठीक है।

जरूर यही बात है। नहीं तो ढाई-तीन हजार उनके लिए क्या बड़ी बात थी? पचासों हजार बैंक में जमा हैं, दफ्तर तो केवल दिल बहलाने जाते हैं।

जालपा–मगर हैं मक्खीचूस पल्ले सिरे के।

रमानाथ- मक्खीचूस न होते, तो इतनी संपत्ति कहां से आती ।

जालपा-मुझे तो किसी की परवा नहीं है जी, हमारे घर किस बात की कमी है। दाल-रोटी वहां भी मिल जायेगी। दो-चार सखी-सहेलियां हैं, खेत-खलिहान हैं, बाग-बगीचे हैं, जी बहलता रहेगा।

रमानाथ-और मेरी क्या दशा होगी,जानती हो? घुट-घुटकर मर जाऊंगा। जब से चोरी हुई,मेरे दिल पर जैसी गुजरती है,वह दिल ही जानता है। अम्मां और बाबूजी से एक बार नहीं,लाखों बार कहा,जोर देकर कहा कि दो-चार चीजें तो बनवा ही दीजिए,पर किसी के कान पर जूं तक न रेंगी। न जाने क्यों मुझसे आंखें फेर लीं।

जालपा–जब तुम्हारी नौकरी कहीं लग जाय, तो मुझे बुला लेना।

रमानाथ–तलाश कर रहा हूं। बहुत जल्द मिलने वाली है। हजारों बड़े-बड़े आदमियों से मुलाकात है, नौकरी मिलते क्या देर लगती है, हां, जरा अच्छी जगह चाहता हूं।

जालपा–मैं इन लोगों का रुख समझती हूं। मैं भी यहां अब दावे के साथ रहूंगी। क्यों, किसी ने नौकरी के लिए कहते नहीं हो?

रमानाथ–शर्म आती है किसी से कहते हुए।

जालपा-इसमें शर्म की कौन-सी बात है ? कहते शर्म आती हो, तो ख़त लिख दो।

रमा उछल पड़ा, कितना सरल उपाय था और अभी तक यह सीधी-सी बात उसे न सूझी थी। बोला--हां, यह तुमने बहुत अच्छी तरकीब बतलाई। कल जरूर लिखूंगा।

जालपा-मुझे पहुंचाकर आना तो लिखना। कल ही थोड़े लौट आओगे।

रमानाथ- तो क्या तुम सचमुच जाओगी? तब मुझे नौकरी मिल चुकी और मैं खत लिख चुका | इस वियोग के दुःख में बैठकर रोऊंगा कि नौकरी ढूंदूंगा। नहीं, इस वक्त जाने का विचार छोड़ो। नहीं, सच कहता हूं, मैं कहीं भाग जाऊंगा। मकान का हाल देख चुका। तुम्हारे सिवा और कौन बैठा हुआ है, जिसके लिए यहां पड़ा सड़ा करू। हटो तो जरा मैं बिस्तर खोल दूं।

जालपा ने बिस्तर पर से जरा खिसककर कहा-मैं बहुत जल्द चली आऊंगी। तुम गए और मैं आई।

रमा ने बिस्तर खोलते हुए कहा-जी नहीं, माफ कीजिए, इस धोखे में नहीं आता। तुम्हें क्या, तुम तो सहेलियों के साथ विहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी, और यहां मेरी जान पर बन आवेगी। इस घर में फिर कैसे कदम रक्खा जायेगा।

जलपा ने एहसान जताते हुए कहा-आपने मेरा बंधा-बंधाया बिस्तर खोल दिया, नहीं तो आज कितने आनंद से घर पहुंच जाती। शहजादी सच कहती थी, मर्द बड़े टोनहे होते हैं। मैंने आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा भी उतर आएं, पर मैं न मानूंगी। पर तुमने दो ही मिनट में मेरे सारे मनसूबे चौपट कर दिए। कल खत लिखना जरूर। बिना कुछ पैदा किए अब निर्वाह नहीं है।