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कर्मभूमि:313
 

लालाजी ने मुंह फेरकर जवाब दिया- मुझे नहीं मालूम-मैंने सबको घर से निकाल दिया। मैंने धन इसलिए नहीं कमाया है कि लोग मौज उड़ाएं। जो धन को मिट्टी समझे, उसे धन का मूल्य सीखना होगा। मैं आज भी अट्ठारह घंटे रोज काम करता हूं। इसलिए नहीं कि लड़के धन को मिट्टी समझें। मेरी ही गोद के लड़के मुझे ही आंखें दिखाएं। धन का धन दें, ऊपर से धौंस भी सुनें। बस, जबान न खोलू, चाहे कोई घर में आग लगा दे। घर का काम चूल्हे में जाए, तुम्हें सभाओं में, जलसों में आनंद आता है, तो जाओ, जलसों से अपना निबाह भी करो। ऐसों के लिए मेरा घर नहीं। लड़का वही है, जो कहना सुने। जब लड़का अपने मन का हो गया तो कैसा लड़का।

रेणुका को ज्योंही सल्लो ने खबर दी, वह बदहवास दौड़ी आई, मानो बेटी और दामाद पर कोई बड़ा संकट आ गया है। वह क्या गैर थीं, उनसे क्या कोई नाता ही नहीं? उनको ख़बर तक न दी और अलग मकान ले लिया। वाह! यह भी कोई लडकों का खेल है। दोनों बिलल्ले। छोकरी तो ऐसी न थी, पर लौंडे के साथ उसका भी सिर फिर गया।

रात के आठ बज गए थे। हवा अभी तक गर्म थी। आकाश के तारे गर्द से धुंधले हो रहे थे। रेणुका पहुंची, तो तीनों निकलुए कोठे की एक चारपाई पर बराबर छत पर मन मारे बैठे थे। सारे घर में अंधकार छाया हुआ था। बेचारों पर गृहस्थी की नई विपत्ति पड़ी थी। पास एक पैसा नहीं। कुछ न झT था, क्या करें।

अमर ने उन्हें देखते ही कहा-अरे! तुम्हें कैसे खबर मिल गई अम्मांजी। अच्छा इस चुडैल सिल्लो ने जाकर कहा होगा। कहां है अभी खबर लेता हूँ।

रेणुका अंधेर में श्रीन पर चढ़ने से हांफ गई थीं। चादर उतारती हुई बोलीं-मैं क्या दुश्मन थी कि मुझसे उसने कह दिया न बुराई की? क्या मेरा घर न था, या मेरे घर रोटियां न थीं? में यहां एक क्षण-भर तो रह? दूँगी। वहां पहाड़-सी घर पड़ा हुआ है, यहां तुम सब-के-सब एक बिल में घुसे बैठे हो। उठो अभी। बच्चा मार गर्मी के कुम्हला गया होगा। यहां खायें भी तो नहीं हैं और इतनी सी जगह में सोओगे कैसे? तू तो ऐसी न थी सुखदा, तुझे क्या हो गया? बड़े-बूढ़ दो बात कहें, तो गम खाना होता है कि घर से निकल खरे होते हैं? क्या इनके साथ तेरी बुद्धि भी भ्रष्ट हो गई?

मुखदा ने सारा वृतांत कह सुनाया और इस ढंग से कि रेणुका को भी लाला समरकान्त की ही ज्यादती मालूम हुई। उन्हें अपने धन का घमंड है तो उसे लिए बैठे रहें। मरने लगे, तो साथ लते जाए।

अमर ने कहा-दादा का यह ख़याल न होगा कि ये सब धर से चले जाएंगे।

सुखदा का क्रोध इतनी जल्द शांत होने वाला न था। बोली-चलो, उन्होंने साफ कहा, यहां तुम्हारा कुछ नहीं है। क्या वह एक दफे भो आकर न कह सकते थे, तुम लोग कहां जो रहे हो? हम घर से निकले। वह कमरे में बैठे टुकुर-टुमर देखा किए। बच्चे पर भी उन्हें दया न आई। जब इतना घमंड है, तो यहां क्या आदमी ही नहीं हैं? वह अपना महल लेकर रहें, हम अपनी मेहनत-मजूरी कर लेंगे। ऐसा लोभी आदमी तुमने कभी देखा था अम्मां, बीवी गई, तो इन्हें भी डांट बतलाई बेचारी रोती चली आई।

रेणुका ने नैना का हाथ पकड़कर कहा--अच्छा, जो हुआ अच्छा ही हुआ, चलो देर हो