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314:प्रेमचंद रचनावली-5
 


रही है। मैं महराजिन से भोजन को कह आई हूं। खाटें भी निकलवा आई हूं। लाला का घर न उजड़ता, तो मेरा कैसे बसता?

नीचे प्रकाश हुआ। सिल्लो ने कड़वे तेल का चिराग जला दिया था। रेणुका को यहां पहुंचाकर बाजार दौड़ी गई। चिराग, तेल और एक झाडू लाई। चिराग जलाकर घर में झाडू लगा रही थी।

सुखदा ने बच्चे को रेणुका की गोद में देकर कहा-आज तो क्षमा करो अम्मां, फिर आगे देखा जाएगा। लालाजी को यह कहने का मौका क्यों दें कि आखिर ससुराल भागा। उन्होंने पहले ही तुम्हारे घर का द्वार बंद कर दिया है। हमें दो-चार दिन यहां रहने दो, फिर तुम्हारे पास चले जाएंगे। जरा हम देख तो लें, अपने बूते पर रह सकते हैं या नहीं?

अमर की नानी मर रही थी। अपने लिए तो उसे चिंता न थी। सलीम या डॉक्टर के यहां चला जाएगा। यहां सुखदा और नैना दोनों बे-खाट के कैसे सोएंगी? कल ही कहां से धन बरस जाएगा? मगर सुखदा की बात की बात कैसे काटे।

रेणुका ने बच्चे की मुच्छियां लेकर कहा-भला, देख लेना जब मैं मर जाऊं। अभी तो मैं जीती ही हूं। वह घर भी तो तेरा ही है। चल जल्दी कर। सुखदा ने दृढ़ता से कहा-अम्मा, जब तक हम अपनी कमाई से अपना निबाह न करन लगेंगे, तब तक तुम्हारे यहां न जाएंगे, जाएंगे पर मेहमान की तरह। घंटे दो घंटे बैठे और चने आए।

रेणुका ने अमर से अपील की-देखते हो बेटा, इसकी बातें। यह मुझे भी गैर समझती है।

सुखदा ने व्यथित कंठ से कहा-अम्मां, बुरा न मानना, आज दादाजी का बर्ताव देखकर मुझे मालूम हो गया कि धनियों को अपना धन कितना प्यारा होता है? कौन जाने कभी तुम्हारे मन में भी ऐसे ही भाव पैदा हों तो ऐसा अवसर आने ही क्यों दिया जाए? जब हम मेहमान की तरह

अमर ने बात काटी। रेणुका के कोमल हृदय पर कितना कठोर आघात था।

"तुम्हारे जाने में तो ऐसा कोई हर्ज नहीं है सुखदा। "तुम्हें बड़ा कष्ट होगा।"

सुखदा ने तीव्र स्वर में कहा-तो क्या तुम्हीं कष्ट सह सकते हो? मैं नहीं सह सकती? तुम अपार कष्ट से डरते हो, तो जाओ। मैं तो अभी कहीं नहीं जाने की।

नतीजा यह हुआ कि रेणुका ने सिल्लो को घर भेजकर अपने बिस्तर मंगवाए। भोजन पक चुका था, इसलिए भोजन भी मंगवा लिया गया। छत पर झाडू दी गई और जैसे धर्मशाला में यात्री ठहरते हैं, उसी तरह इन लोगों ने भोजन करके रात काटी। बीच-बीच में मजाक भी हो जाता था। विपत्ति में जो चारों ओर अंधकार दीखता है, वह हाल न था। अंधकार था, पर ऊषाकाल का। विपत्ति थी; पर सिर पर नहीं, पैरों के नीचे।

दूसरे दिन सवेरे रेणुका घर चली गईं। उन्होंने फिर सबको साथ ले चलने के लिए जोर लगाया, पर सुखदा राजी न हुई। कपड़े-लते, बरतन-- भांडे, खाट-खटोली कोई चीज लेने पर राजी न हुई। यहां तक रेणुका नाराज हो गईं। और अमरकान्त को भी बुरा मालूम हुआ। वह इस अभाव में भी उस पर शासन कर रही थी।