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कर्मभूमि:315
 

रेणुका के जाने के बाद अमरकान्त सोचने लगा-रुपये-पैसे को कैसे प्रबंध हो? यह समय फ्री पाठशाला का था। वहां जाना लाजमी था। सुखदा अभी सवेरे की नींद में मग्न थी, और नैना चिंतातुर बैठी सोच रही थी-कैसे घर का काम चलेगा? उस वक्त अमर पाठशाला चला गया, पर आज वहां उसका जी बिल्कुल न लगा। कभी पिता पर क्रोध आता, कभी सुखदा पर, कभी अपने आप पर। उसने अपने निर्वासन के विषय में डॉक्टर साहब से कुछ न कहा। वह किसी की सहानुभूति न चाहता था। आज अपने मित्रों में से वह किसी के पास न गया। उसे भय हुआ, लोग उसका हाल-सुनकर दिल में यही समझेंगे। मैं उनसे कुछ मदद चाहता हूँ।

दस बजे घर लौटा, तो देखा सिल्लो अटी गुंथ रही है और नैना चौके में बैठी तरकारी पका रही है। पूछने की हिम्मत न पड़ी, पैसे कहां से आए? नैना ने आप ही कहा-सुनते हो भैया, आज सिल्लों ने हमारी दावत की है। लकडी, घी, अटा, दाल सब बाजार से लाई है। बर्तन भी किसी अपने जान-पहचान के घर से मांग नाई है।

सिल्लो बोल उठी–मैं दावत नहीं करती हूं। मैं अपने पैसे जोड़कर ले लूंगी।

नैना हंसती हुई बोली-यह बड़ी देर से मुझसे लड़ रही है। यह कहती है-मैं पैसे ले लुगी, मैं कहती हूं-तू तो दावत कर रही है। बताओ भैया, दावत ही तो कर रही है?

‘हां और क्या! दावत तो है ही।"

अमरकान्त पगली सिल्लों के मन का भाव ताड़ गया। वह समझती है, अगर यह न कहेगी तो शायद यह लोग उसके रुपयों की लाई हुई चीज लेने से इंकार कर देंगे।

सिल्लो का पोपला मुह खिल गया। जैसे वह अपनी दृष्टि में कछ ऊंची हो गई हैं, जैसे उसको जीवन सार्थक हो गया है। उसकी रूपहीनता और शुष्कता मानो माधुर्य में नहीं उठी। उसने हाथ धोकर अमरकान्त के लिए लोटे को पानी रख दिया, तो पांव जमीन पर न पड़ते थे।

अमर को अभी तक आशा थी कि दादा शायदै सुखदा और नैना को बुला लेंगे, पर जब अब कोई बुलाने न आया और न वह खुद आए तो उसका मन खट्टा हो ।या।

उसने जल्दी से स्नान किया, पर याद आया, धोती तो है ही नहीं। गले की चादर पहन नी, भजन किया और कुछ कमाने की टोह में निकला।

सुख़दा ने मुंह लटकाकर पूछा- तुम तो ऐसे निश्चित होकर बैठ रहे, जैसे यहां सारा इंतजाम किए जा रहे हो। यहां लाकर बिठाना ही जानते हो। सुबह से गायब हुए तो दोपहर को लौटे। किसी से कुछ काम-धन्धे के लिए कहा, या खुदा छप्पर फाड़कर देगा? यो काम न चलेगा, समझे गए?

चौबीस घंटे के अंदर सुखदा के मनोभावों में यह परिवर्तन देखकर अमर की मन उदास हो गया। कल कितने बढ़-बढ़कर बातें कर रही थी आज शायद पछता रही है कि क्यों घर से निकले।

रूखे स्वर में बोला-अभी तो किसी से कुछ नहीं कहा। अब जाता हूं किसी काम की तलाश में।

"मैं जरा जज साहब की स्त्री के पास जाऊंगी। उनसे किसी काम को कहूँगी। उन दिनों