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316:प्रेमचंद रचनावली-5
 

तो मेरा बड़ा आदर करती थीं। अब का हाल नहीं जानती।"

अमर कुछ नहीं बोला---यह मालूम हो गया कि उसकी कठिन परीक्षा के दिन आ गए। अमरकान्त को बाजार के सभी लोग जानते थे। उसने एक खद्दर की दुकान से कमीशन पर बेचने के लिए कई थान खद्दर की साडियां, जंफर, कुर्ते, चादरें आदि ले लीं और उन्हें खुद अपनी पीठ पर लादकर बेचने चला।

दूकानदार ने कहा---यह क्या करते हो बाबू, एक मजूर ले लो। लोग क्या कहेंगे? भद्दा लगती हैं। अमर के अंत:करण में क्रांति का तूफान उठ रहा था। उसका बस चलता तो आज धनवानों का अंत कर देता, जो संसार को नरके बनाए हुए हैं। वह बोझ उठाकर दिखाना चाहता था, मैं मजूरी करके निबाह करना इससे कहीं अच्छा समझता हूं कि हराम की कमाई खाऊ। तुम सब मोटी तोंद वाले हरामखोर हो, पक्के हरामखोर हो। तुम मुझे नीच समझते हो । इसलिए कि मैं अपनी पीठ पर बोझ लादे हुए हैं। क्या यह बोइ तुम्हारी अनीति और अधर्म के बाद से ज्यादा लज्जास्पद है, जो तुम अपने सिर पर लादे फिरते हो और शरमाते जरा भी नहीं उलटे और घमंड करते हो?

इस वक्त अगर कोई धनी अमरकान्त को छेड़ देता, तो उसकी शामत ही आ जाती। वह सिर से पांव तक बारूद बना हुआ था, बिजली का जिंदा तार।

सत्रह

अमरकान्त खादी बेच रहा है। तीन बजे होंगे, लू चल रही है, बगूले उठ रहे हैं। दुकानदा। दूकानों पर सो रहे हैं, रईस'महलों में सो रहे हैं; मजूर पेड़ों के नीचे सो रहे हैं, और अमर गन्ध का गटठ लाद, पमीने में नर, चेहरा सुर्ख, आंखें लाल, गली-गली घूमता फिरता है।

एक वकील साहब ने खुस का परदा उठाकर देखा और बोले--अरे यार, यह क्या गजन्म करने ही, म्युनिसिपल कमिश्नरी की ती लाज रखते, सारा भद्द कर दिया। क्या कोई मजूर नहीं मिलता था? अमर ने गट्ठा न्निए-लिए कहा-मजूरी करने में म्युनिसिपल कमिश्नरी की शान में बट्टी नहीं लगता! बट्टा लगता है-धोखे-धड़ी की कमाई खाने से।

"वहां धोठे-धड़ी की कमाई खाने वाला कौन है, भाई? क्या वकील, डॉक्टर, प्रोफेसर, संठ-साहूकार धोखे-धड़ी की कमाई खाते हैं?"

यह उनके दिल से पूछिए। मैं किसी को क्यों बुरा कहूं?"

"आख़िर आपने कुछ समझकर ही तो फिकरा चुस्त किया?"

"अगर आप मुझसे पूछना ही चाहते हैं तो मैं कह सकता हूं, हां, खाते हैं। एक आदमी दस रुपये में गुजर करता है, दूसरे को दस हजार क्यों चाहिए? यह धांधली उसी वक्त तक चलेगी, जब तक जनता की आंखें बंद हैं। क्षमा कीजिएगा, एक आदमी पंखे की हवा खाए