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कर्मभूमि:317
 


और खसखाने में बैठे, और दूसरा आदमी दोपहर को धूप में तपे, यह न न्याय है, न धर्म--यह धांधली है।"

"छोटे-बड़े तो भाई साहब हमेशा रहे हैं और हमेशा रहेंगे। सबको आप बराबर नहीं कर सकते है।"

मैं दुनिया का ठेका नहीं लेता, अगर न्याय अल्छी चीज़ हैं तो वह इसलिए खराब नहीं हो सकती कि लोग उसका व्यवहार नहीं करते।"

"इसका अशय यह है कि आप व्यक्तिवाद को नहीं मानते, ममप्टिवाद के कायल है।"

"मैं किसी वादे का कायल नहीं। केवल न्यायवः का पुजारी है।

"तो अपने पिताजी से बिल्कुल अलग हो गए।"

"पिताजी ने मेरी जिंदगी भर का ठेका नहीं लिया!"

"अच्छी लाइए, देखें आपके पास क्या-क्या चीजें हैं?"

"अमरकान्त ने इन महाशय के हाथे दस रुपये के कपड़े बेच।

अम्मर आजकल बड़ा क्रोधी, बेड़ा कटुभाषी बटा उदंड हो गया है। हरदम उसको लवार म्यान से बाहर रहती हैं। बान वाल पर उलझता है। फिर भी उसकी बिक्री अच्छी होती है। रुपया-सवा रूपया रोज मिल जाता है।

त्यागी दो प्रकार के होते हैं। एक वह जो त्याग में आनंद मानते हैं, जिनकी अन्मा का त्याग में संतोष और पूर्णता का अनुभव होता हैं, जिनके त्याग में उदारता और सौजन्य हैं। दूसरे वह, जो दिलजले त्यागी होते हैं, जिनका त्याग अपनी परिस्थितियों में विद्रोह-त्र हैं, जो अपने न्यायपथ पर चलने का तावान संसार से लेते हैं, जो खुद जलते हैं इसलिए दूसरों को भी जलाते हैं। अमर इसी तरह की त्यागी था।

स्वस्थ आर्मी अग नीम की पनी चबाता है, तो अपने स्वास्थ्य को बढ़ाने के लिए, यह शौक से पत्तियां तोड़ लाता है, शोक से पीसता और शौक से पीता है, गेगी वही पत्तिया पीता है तो नाक सिकोडकर, मुंह बनाकर झुँझलाकर और अपनी तकदीर दो राकर।

सुखदा जज साहब की पत्नी की सिफारिश से बालका-विद्यालय में पचाग। पर नौकर हो गई है। अमर दिल खोलकर तो कुछ कह नहीं सकता, पर मन में जलती रहता है। घर का सारा काम, बच्चे को संभालना, रमोई पकाना, जरूरी चीज बाजार से मंगना-यह मव उसके मत्थे है। सुखदा घर के कामों के नगीच नहीं जाती। अमर आम कहता है, तो सुखद इमली कहती है। दोनों में हमेशा खट-पट होती रहती हैं। सुखदा इस दरिद्रवस्था में भी उन पर शासन कर रही है। अमर कहता है, आधा सेर दुध काफी हैं, सुखदा कहती है, सेर भर आएगा, और सेर भर ही मंगाती है। वह खुद दूध नहीं पीता, इस पर भी रोज लड़ाई होती है। वह कहता है, गरीब हैं, मजूर हैं, हमें मजूरों की तरह रहना चाहिए। वह कहती हैं, हम मजूर नहीं हैं, न मजूरों की तरह रहेंगे। अमर उसको अपने आत्मविकास में बाधक समझता है और उस बाधा को हटा न सकने के कारण भीतर-ही-भीतर कुढ़ता है।

एक दिन बच्चे को खासी आने लगी। अमर बच्चे को लेकर एक होमियोपैथ के पास जाने को तैयार हुआ। सुखदा ने कहा-बच्चे को मत ले जाओ, हवा लगेगी। डॉक्टर को बुला