पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/३१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
318:प्रेमचंद रचनावली-5
 


लाओ। फीस ही तो लेगा।

अमर को मजबूर होकर डॉक्टर बुलाना पड़ा। तीसरे दिन बच्चा अच्छा हो गया। एक दिन खबर मिली, लाला समरकान्त को ज्वर आ गया है। अमरकान्त इस महीने भर में एक बार भी घर नहीं गया था। यह खबर सुनकर भी न गया। वह मरें या जिएं, उसे क्या करना है? उन्हें अपना धन प्यारा है, उसे छाती से लगाए रखें। और उन्हें किसी की जरूरत ही क्या?

पर सुखद से न रहा गया। वह उसी वक्त नैना को साथ लेकर चल दो। अमर मन में जल-भुनकर रह गया।

समरकान्त घर वालों के सिवा और किसी के हाथ का भोजन न ग्रहण करते थे। कई दिनों तो उन्होंने दूध पर काटे, फिर कई दिन फल खाकर रहे, लेकिन रोटी-दाल के लिए जी तरसता रहता था। नाना पदार्थ बाजार में भरे थे, पर रोटिया कहा? एक दिन उनसे न रहा गया। रोटियां पकाई और हौके में आकर कुछ ज्यादा खा गए। अजीर्ण हो गया। एक दिने दस्त आए। दूसरे दिन ज्वर हो आया। फलाहार से कुछ तो पहले गल चुके थे, दो दिन की बीमारी ने लस्त कर दिया।

सुखदा को देखकर बोले-अभी क्या आने की जल्दी थी बहू, दो-चार दिन और देख लेत? तब तक यह धन का सांप उड़ गया होता। वह लौंडा समझता है, मुझे अपने न्यारत्न बच्चों से धन प्यारा है। किसके लिए इसका संचय किया था? अपने लिए? तो बाल बच्चा को क्यों जन्म दिया? उसी लौंडे को, जो आज मेरा शत्रु बना हुआ हैं, छाती से लगाए क्यों ओझे-सयानों, वैद्यों-हकीमों के पास दौड़ा फिरा? खुद कभी अच्छा नहीं खाया, अच्छा नहीं पहना, किसके लिए? कृपण बना, बेईमानी की, दूसरों की खुशामद की, अपनी आत्मा को हत्या की, किसके लिए? जिसके लिए चोरी की, वही आज मुझे चोर कहता है।

सुखदा सिर झुकाए खड़ी रोती रही।

लालाजी ने फिर कहा-मैं जानता हूं, जिसे ईश्वर ने हाथ दिए हैं, वह दूसरों का मुहताज नहीं रह सकता। इतना मूर्ख नहीं है, लेकिन मां-बाप की कामना तो यही होती है कि उनके संतान को कोई कष्ट न हो। जिस तरह उन्हें मरना पड़ा, उसी तरह उनकी संताने को मरना न पड़े। जिस तरह उन्हें धक्के खाने पड़े, कर्म-अकर्म सब करने पड़े वे कठिनाइयां उनकी संतान को न झेलनी पड़े। दुनिया उन्हें लोभी, स्वार्थी कहती हैं, उनको परवाह नहीं होती, लेकिन जब अपनी ही संतान अपना अनादर करे, तब सोचा अभागे बाप के दिल पर क्या बीतती है? उससे मालूम होता है, सारा जीवन निष्फल हो गया। जो विशाल भवन एक-एक ईंट जोड़कर खड़ा किया था, जिसके लिए क्वार की धूप और माघ की वर्षा सब झेली, वह ढह गया, और उसके ईट-पत्थर सामने बिखरे पड़े हैं। वह घर नहीं ढह गया वह जीवन ढहे गया, संपूर्ण जीवन की कामना ढह गई।

सुखदा ने बालक को नैना की गोद से लेकर ससुर की चारपाई पर सुला दिया और पंखा झलने लगी। बालक ने बड़ी-बड़ी सजग आंखों से बूढ़े दादा की मूंछे देखीं, और उनके यहां रहने का कोई विशेप प्रयोजन न देखकर उन्हें उखाड़कर फेंक देने के लिए उद्यत ही गया। दोनों हाथों से मूंछ पकड़कर खींची। लालाजी ने 'सी-सी' तो की पर बालक के हाथों