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320:प्रेमचंद रचनावली-5
 

एक महिला भी उसके साथ थी। सुखदा मानो धरती में गड़ गई।

अमर ज्योंही घर आया, उसने यही विषय छेड़ दिया–मालूम तो हो गया, कि तुम बड़े सत्यवादी हो। दूसरों के लिए भी कुछ रहने दोगे, या सर्व तुम्हीं ले लो। अब तो संसार में परिश्रम का महत्त्व सिद्ध हो गया। अब तो बकचा लादना छोड़ो। तुहें शर्म न आती हो, लेकिन तुम्हारी इज्जत के साथ मेरी इज्जत भी तो बंधी हुई है। तुम्हें कोई अधिकार नहीं कि तुम यों मुझे अपमानित करते फिरो।

अमर तो कमर कसे तैयार था ही। बोला-यह तो मैं जानता हूं कि मेरा अधिकार कहीं कुछ नहीं है। लेकिन क्या पूछ सकता हूं कि तुम्हारे अधिकारों को भी कहीं सीमा है, या वह असीम है?

"मैं ऐसा कोई काम नहीं करती, जिसमें तुम्हारा अपमान हो।"

"अगर मैं कहूं कि जिस तरह मेरे मजदूरी करने से तुम्हारा अपमान होता है, उसी तरह तुम्हारे नौकरी करने से मेरा अपमान होता है, शायद तुम्हें विश्वास ने आएगा।"

"तुम्हारे मान-अपमान का कांटा संसार भर से निराला हो, तो मैं लाचार हूं।"

"मैं संसार का गुलाम नहीं है। अगर तुम्हें यह गुलामी पसंद है, तो पौक से करो। तुम मुझे मजबूर नहीं कर सकतीं।"

"नौकरी न करू, तो तुम्हारे रुपये बीस ने रोज में घर- खर्च निभेगा?"

"मेरा खयाल है कि इस मुल्क में नब्बे फीसदी आदमियों को इमसे भी कम में गुजर करना पड़ता है।"

"मैं उन नब्बे फीसदी वालों में नहीं, शेष दस फीसदी वालों में हूं। मैंने अंतिम बार कह दिया कि तुम्हारा बकेचा होना मुझे असह्य है और अगर तुमने न माना, तो मैं अपने हाथों वह बकचा जमीन पर गिरा दूंगी। इससे ज्यादा मैं कुछ कहना या सुनना नहीं चाहती।"

इधर डेढ़ महीने में अमरकान्त सकीना के घर न गया था। बाद उसकी रोज आती पर जाने का अवसर न मिलता। पंद्रह दिन गुजर जाने के बाद उसे शर्म आने लगी कि वह पूछेगी--इतने दिन क्यों नहीं आए, तो क्या जवाब दूंगा? इस शर्मा-शरमी में वह एक महीना और न गया। यहां तक कि आज सकीना ने उसे एक कार्ड लिखकर खैरियत पृछी थी और फुरस्मत हो, तो दस मिनट के लिए बुलाया था। आज अम्मी जान्न बिरादरी में जाने वाली थी। बातचीत करने का अच्छा मौका था। इधर अमरकान्त भी इस जीवन से ऊब उठा था। सुखद के साथ जीवन कभी सुखी नहीं हो सकता, इधर इन डेढ़-दो महीनों में उसे काफी परिचय मिल गया था। वह जो कुछ है, वहीं रहेगा ज्यादा तेबदीन नहीं हो सकता। सुखदा भी जो कुछ है, वही रहेगी। फिर सुखी जीवन की आशा कहा? दोनों की जीवन-धारा अलग, आदी अलग, मनोभाव अलग। केवल विवाह-प्रथा को मर्यादा निभाने के लिए वह अपना जीवन धूल में नहीं मिला सकता, अपनी आत्मा के विकास को नहीं रोक सकता। मानव जीवन का उद्देश्य कुछ और भी हैं, खाना कमाना और मर जाना नहीं।

वह भोजन करके आज कांग्रेस-दफ्तर न गयी। आज उसे अपनी जिंदगी की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या को हल करना था। इसे अब वह और नहीं टाल सकता। बदनामी की क्या चिंता? दुनिया अंधी है और दूसरों को अंधा बनाए रखना चाहती है। जो खुद अपने