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कर्मभूमि:321
 


लिए नई राह निकालेगा, उस पर संकीर्ण विचार वात्न हंसे तो क्या अश्चर्य? उसने खद्दर की दो साड़ियां उसे भेट देने के लिए ले लो और लपका हुआ जा पहुंचा।

सकीना उसकी राह देख रही थी। कुंडी खनकते ही द्वार खोल दिया और हाथ पकड़कर बोली-तुम तो मुझे भूल ही गए। इसी का नाम मुहब्बत हैं?

अमर ने लज्जित होकर कहा-यह बात नहीं है, सकीना। एक लमहे के लिए भी तुम्हारी याद दिल से नहीं उतरती, पर इधर बड़ी परेशानियों में फंसा रहा।

"मैंने सुना था। अम्मां कहती थीं। मुझे यकीन न आना था कि तुम अपने अब्याजान से अलग हो गए। फिर यह भी सुना कि तुम सिर पर खद्दर लादकर बेचते हो। मैं तो तुम्हें कभी सिर पर बोझ न लादने देती। मैं वह गठरी अपने सिर पर रखती और तुम्हारे पीछे-पीछे चलती। में यहां आराम से पड़ी थी और तुम इस धुप में कपड़ लाद फिरते थे। मेरा दिल तड़प तड़पकर रह जाता था।"

कितने प्यारे, मीठे शब्द थे। कितने कोमल, स्नेह में डूबे हुए। सुखदा के मुख से भी कभी यह शब्द निकल? वह तो केवल शासन करना जानती है। उसको अपने अंदर ऐसी शक्ति का अनुभव हुआ कि वह उसका चौगुना बोझ लेकर चल सकता है, लेकिन वह मकीना के कोमल हृदय को आघात नहीं पहुंचाएगा। आज म यह गट्ठर लादकर नहीं चलेगा। बोला-दादा की खुदगरजी पर दिल जल रहा था, सकीना। वह समझते होंगे, मैं उनकी दौलत का भूखा हैं। मैं उन्हें और उनके दूसरे भइया को दिखा देना चाहता था कि मैं कड़ी-से-कड़ी मेहनत कर सकता हूं। दौलत की मुझे परवाह नहीं है। सुखदा उस दिन मेरे साथ आई थी, लेकिन एक दिन दादा ने झूठ-मूठ कहला दिया, मुझे बुखार हो गया हैं। बस वहां पहुंच गई। तब से दोनों वक्त उनको खाना पकाने जाती है।

सकीना ने सरलता से पूछा.. तो क्या यह भी तुम्हें बुरा लगता है? बूढ़े आदमी अकेले घर में पड़े रहते हैं। अगर वह चली जाती हैं, तो क्या बुराई करती हैं। उनकी इस बात में ना मेरे दिल में उनकी इज्जत हो गई।

अमर ने खिसियाकर कहा--यह शराफत नहीं हो सकीना, उनकी आदत है, मैं तुमसे सच कहता हूं, जिसने कभी झूठां मुझसे नहीं पूछा तुम्हारा जी कैसा है, वह उनकी बीमारी की खबर पाते ही बेकरार हो जाए, यह बात समझ में नहीं आती। उनकी दौलत उसे खींच ले जाती है, और कुछ नहीं। मैं अब इस नुमाया की जिंदगी से तंग आ गया हूँ, सकीना! में सच कहता हूं, पागल हो जाऊंगा। कभी-कभी जी में आता है, सब छोड़-छाड़कर भाग जाऊं, ऐसी जगह भाग जाऊ, जहां लोगों में आदमियत हो। आज तुझे फैसला कर पड़ेगा सकीना, चलो कहीं छोटी-सी कुटी बना लें और खुदगरजी की दुनिया से अलग मेहनत मजदूरी करके जिंदगी बसर करें। तुम्हारे साथ रहकर फिर मुझे किसी चीज की आरजू नहीं रहेगी। मेरी जान मुहब्बत के लिए तड़प रही है, उस मुहब्बत के लिए नही, जिसकी जुटाई में भी साल हैं, बल्कि जिसकी विसाल में भी जुदाई है। मैं वह मुहब्बत चाहता हूं, जिसमें ख्वाहिश है, लज्जत है। मैं बोतल की सुर्ख शराब पीना चाहता हूं, शायरों की खयाली शराब नहीं।

उसने सकीना को छाती से लगा लेने के लिए अपनी तरफ खींचा। उसी वक्त द्वार खुला और पठानिन अंदर आई। सकीना एक कदम पीछे हट गई। अमर भी जरा पीछे खसक गया।