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322:प्रेमचंद रचनावली-5
 

सहसा उसने बात बनाई-आज कहां चली गई थीं, अम्मां? मैं यह साड़ियां देने आया था। तुम्हें मालूम तो होगा ही, मैं अब खद्दर बेचता हूँ।

पठानिन ने साड़ियों का जोड़ा लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। उसका सूखा, पिचका हुआ मुंह तमतमी उठी। सारी झुर्रियां, सारी सिकुड़ने जैसे भीतर की गर्मी से तन उठीं। गली-बुझी हुई आंखें जैसे जल उठीं। आंखें निकालकर बोली-होश में आ, छोकरे! यह साड़ियां ले जा, अपनी बीवी-बहन को पहना, यहां तेरी साड़ियों के भूखे नहीं हैं। तुझे शरीफजादा और साफ-दिल समझकर तुझसे अपनी गरीबी का दुखड़ा कहती थी। यह न जानती थी कि तू ऐसे शरीफ बाप का बेटा होकर शोहदापन करेगा। बस, अब मुंह न खोलना, चुपचाप चला जा, नहीं आंखें निकलवा लेंगी। तू है किस घमंड में? अभी एक इशारा कर दें, तो सारा मुहल्ला जमा हो जाए। हम गरीब हैं, मुसीबत के मारे हैं, रोटियों के मुहताज हैं। जानता है क्यों? इसलिए कि हमें आबरू प्यारी है, खबरदार जो कभी इधर का रुख किया। मुंह में कालिख लगाकर चला जा।

अमर पर फालिज गिर गया, पहाड़ टूट पड़ा, वज्रपात हो गया। इन वाक्यों से उसके मनोभावों का अनुमान हम नहीं कर सकते। जिनके पास कल्पना है, वह कुछ अनुमान कर सकते हैं। जैसे संज्ञा-शून्य हो गया, मानो पाषाण प्रतिमा हो। एक मिनट तक वह इसी दशा में खड़ी रहा। फिर दोनों साड़ियां उठा लीं और गोली खाए जानवर की भांति सिर लटकाए लडख़ड़ाता हुआ द्वार की ओर चला।

सहसा सकीना ने उसका हाथ पकड़कर रोते हुए कहा-बाबूजी, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं। जिन्हें अपनी आबरू प्यारी हैं, वह अपनी आबरू लेकर चाटें। में बेआबरू ही रहूंगी।

अमरकान्त ने हाथ छुड़ा लिया और आहिस्ता से बोला--जिंदा रहेंगे, तो फिर मिलेंगे, सकीना। इस वक्त जाने दो। मैं अपने होश में नहीं हूं।

यह कहते हुए उसने कुछ समझकर दोनों साड़ियां सकीना के हाथ में रख दीं और बाहर चला गया।

सकीना ने सिसकियां लेते हुए पूछा तो आओगे कब?

अमर ने पीछे फिरकर कहा-जब यहां मुझे लोग शोहदा और कमीना न समझेंगे!

अमर चला गया और सकीना हाथों में साड़ियां लिए द्वार पर खड़ी अंधकार में ताकती रही।

सहसा बुढिया ने पुकारा-अब आकर बैठेगी कि वहीं दरवाजे पर खड़ी रहेगी? मुह में कालिख तो लगा दी। अब और क्या करने पर लगी हुई है?

सकीना ने क्रोध भरी आंखों से देखकर कहा--अम्मां, आकबत से डरो, क्यों किसी भले आदमी पर तोहमत लगाती हो। तुम्हें ऐसी बात मुंह से निकालते शर्म भी नहीं आती। उनकी नेकियों को यह बदला दिया है तुमने। तुम दुनिया में चिराग लेकर ढूंढ आओ, ऐसा शरीफ तुम्हें न मिलेगा।

पठानिन ने डांट बताई-चुप रह, बेहया कहीं की। शरमाती नहीं, ऊपर से जबान चलाती है। आज घर में कोई मर्द होता तो सिर काट लेता। मैं जाकर लाला से कहती हूं। जब तक इसे पाजी को शहर से न निकाल दूंगी, मेरा कलेजा ने ठंडा होगा। मैं उसकी जिंदगी गारत कर दूँगी।