पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/३२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मभूमि: 329
 

बुढिया ने आशीर्वाद देकर पूछा-कहां जाना है, बेटा?

यों ही मांगता-खाता हूँ माता, आना-जाना कहीं नहीं है। रात को सोने की जगह तो मिल जाएगी?"

"जगह की कौन कमी है भैया, मदर के चौंतरे पर सो रहना। किसी साधु-संत के फेरे में तो नहीं पड़ गए हो? मेरा भी एक लड़का उनके जाल में फंस गया। फिर कुछ पता न चला। अब तक कई लड़कों का बाप होता।"

दोनों गांव में पहुंच गए। बुढिया ने अपनी झोंपड़ी की टट्टी खोलते हुए कहा-लाओ, लकड़ी रख दो यहां। थक गए हो, थोड़ा-सा दूध रखा है, पी लो। और सब गोरू तो मर गए, बेटा। यही गाय रह गई है। एक पाव भर दूध दे देती है। खाने को तो पाती नहीं, दूध कहां से दे।

अमर ऐसे सरल स्नेह के प्रसाद को अस्वीकार न कर सका। झोपड़ी में गया तो उसकी हृदय कांप उठा। मानो दरिद्रता छाती पीट-पीटकर रो रही हैं। और हमारा उन्नत समाज विलास में मग्न है। उसे रहने को बंगला चाहिए, सवारी को मोटर। इस संसार का विध्वंस क्यों नहीं हो जाता।

बुढिया ने दूध एक पीतल के कटोरे में उड़ेल दिया और आप घड़ा उठाकर पानी लाने चली। अमर ने कहा- मैं खींचे लाता हूँ माता, रस्सी तो कुएं पर होगी?

"नहीं बेटा, तुम कहां जाओगे पानी भरने? एक रात के लिए आ गए, तो मैं तुमसे पानी भराऊ?"

बुढ़िया हां, हां, करती रह गई। अमरकान्त घड़ा लिए कुएं पर पहुंच गया। बुढिया से न रहा गया। वह भी उसके पछि-पीछे गई।"

कुएं पर कई औरतें पानी खीच रही थीं। अमरकान्त को देखकर एक युवती ने पूछा-कोई पाहुने हैं क्या, सलोनी काकी?

बुढ़िया हंसकर बोली- पाहुने होते, तो पानी भरने कैसे आते! तेरे घर भी ऐसे पाहुने आते हैं?

युवती ने तिरछी आंखों से अमर को देखकर कहा-हमारे पाहुने तो अपने हाथ से पानी भी नहीं पीने, काकी। ऐसे भोले-भाले पाहुने को मैं अपने घर ले जाऊंगी।

अमरकान्त का कलेजा ध्क-से हो गया। वह युवती वही मुन्नी थी, जो खून के मुकदमे से बरी हो गई थी। वह अब उतनी दुर्बल, उतनी चिंतित नहीं है। रूप माधुर्य है, अंगों में विकास, मुख पर हास्य की मधुर छवि। आनंद जीवन का तत्त्व है। वह अतीत की परवाह नहीं करता, पर शायद मुन्नी ने अमरकान्त को नहीं पहचाना। उसकी सूरत इतनी बन गई है। शहर का सुकुमार युवक देहात का मजूर हो गया है।

अमर झेंपते हुए कहा-मैं पाहुनी नहीं हूं देवी, परदेशी हूं। आज इस गांव में आ निकला। इस नाते सारे गांव का अतिथि हूं। युवती ने मुस्कराकर कहा-तब एक-दो धड़ों से पिंड न छूटेगा। दो सौ घडे भरने पड़ेंगे, नहीं तो धड़ा इधर बढ़ा दो। झूठ तो नहीं कहती, काकी।

उसने अमरकान्त के हाथ से घड़ा ले लिया और चट फंदा लगा, कुंए में डाल, बातकी-बात में घड़ा खींच लिया।