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330:प्रेमचंद रचनावली-5
 

अमरकान्त घड़ा लेकर चला गया, तो मुन्नी ने सलोनी सेकहा-किसी भले घर का आदमी है, काकी! देखा कितना शरमाता था। मेरे यहां से अचार मंगवा लीजियो, आटा-वाटा तो है?

सलोनी ने कहा-बाजरे का है, गेहूं कहां से लाती?

"तो मैं आटा लिए आती हूं। नहीं, चलो दे दें। वहां काम-धंधे में लग जाऊंगी, तो सुःति न रहेगी।"

मुन्नी को तीन साल हुए मुखिया का लड़का हरिद्वार से लाया था। एक सप्ताह से एक धर्मशाले के द्वार पर जीर्ण दशा में पड़ी थी। बड़े-बड़े आदमी धर्मशाले में आते थे, सैकड़ों हजारों दान करते थे; पर इस दुखिया पर किसी को दया न आती थी। वह चमार युवक जूते बेचने आता था। इस पर उसे दया आ गई। गाड़ी पर लाद कर घर लाया। दवा-दारू होने लगी। चौधरी बिगड़े, यह मुर्दा क्यों लाया; पर युवक बराबर दौड़-धूप करता रहा। वहां डॉक्टर वैद्य कहां थे? भभूत और आशीर्वाद का भरोसा था। एक ओझे की तारीफ सुनी, मुर्दो को जिला देता है। रात को उसे जलाने चला, चौधरी ने कहा-दिन होने दो तब जाना। युवक ने माना, रात को ही चल दिया। गंगा चढी हुई थी! उसे पार जाना था। सोचा, तैरकर निकल जाऊंगा, कौन बहुत चौड़ा पाट है। सैकड़ों ही बार इस तरह आ-जा चुका था। निश्शंक पानी में घुस पड़ा; पर लहरें तेज थीं, पांव उखड़ गए, बहुत संभलना चाहा; पर न संभल सका। दूसरे दिन दो कोस पर उसकी लाश मिली! एक चट्टान से चिमटी पड़ी थी। उसके मरते ही मुन्नी जी उठी और तब से यहीं है। यही घर उसका घर है। यहां उसका आदर है, मान है। वह अपनी ज्ञात-पांत भूल गई, आचार-विचार भूल गई, और ऊंच जाति ठकुराइन अछूतों के साथ अछूत बनकर आनंदपूर्वक रहने लगी। वह घर की मालकिन थी। बाहर का सारा काम वह करती, भीतर की रसोई-पानी, कूटना-पीसना दोनों देवरानियां करती थीं। वह बाहरी न थी। चौधरी की बड़ी बहू हो गई थी।

सलोनी को ले जाकर मुन्नी ने थाल में आटी, अचार और दही रखकर दिया; पर सलोनी को यह थाल लेकर घर जाते लाज आती थी। पाहुना द्वार पर बैठा हुआ है। सोचेगा, इसके घर में आदा भी नहीं है? जरा और अंधेरा हो जाय, तो जाऊं।

मुन्नी ने पूछा-क्या सोचती हो काकी?

"सोचती हूं, जरा! और अंधेरा हो जाय तो जाऊं। अपने मन में क्या कहेगा?"

“चलो, मैं पहुंचा देती हूं। कहेगा क्यो, क्या समझता है यहां धन्नासेठ बसते हैं? मैं तो कहती हैं, देख लेना, वह बाजरे की ही रोटियां खाएगा। गेहूं को छुएगा भी नहीं।"

दोनों पहुंचीं तो देखा अमरकान्त द्वार पर झाडू लगा रहा है। महीनों से झाडून लगी थी। मालूम होता था, उलझे-बिखरे बालों पर कंघी कर दी गई है।

सलोनी थाली लेकर जल्दी से भीतर चली गई। मुन्नी ने कहा--अगर ऐसी मेहमानी करोगे, तो यहां से कभी न जाने पाओगे।

उसने अमर के पास जाकर उसके हाथ से झाडू छीन ली। अमर ने कूड़े को पैरों से एक जगह बटोर कर कहा--सफाई हो गई, तो द्वार कैसा अच्छा लगने लगा?

"कल चले जाओगे, तो यह बातें याद आएंगी। परदेसियों का क्या विश्वास? फिर इधर क्यों आओगे?"