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कर्मभूमि: 331
 

मुन्नी के मुख पर उदासी छा गई।

"जब कभी इधर आना होगा, तो तुम्हारे दर्शन करने अवश्य आऊंगा। ऐसा सुंदर गांव मैंने नहीं देखा। नदी, पहाड़, जंगल, इसकी भी छटा निराली है। जी चाहता है, यहीं रह जाऊं और कहीं जाने का नाम न लें।"

मुन्नी ने उत्सुकता से कहा तो यहीं रह क्यों नहीं जाते? मगर फिर कुछ सोचकर बोली-तुम्हारे घर में और लोग भी तो होंगे, वह तुम्हें यहां क्यों रहने देंगे?

"मेरे घर में ऐसा कोई नहीं है, जिसे मेरे मरने-जीने की चिंता हो। मैं संसार में अकेली हैं।"

मुन्नी आग्रह करके बोली-तो यहीं रह जाओ, कौन भाई हो तुम?

“यह तो मैं बिल्कुल भूल गया, भाभी! जो बुलाकर प्रेम से एक रोटी खिला दे वही मेरा भाई है।"

"तो कल मुझे आ लेने देना। ऐसा न हो, चुपके से भाग जाओ।"

अमरकान्त ने झोंपड़ी में आकर देखा, तो बुढिया चूल्हा जला रही थी। गोली लकड़ी, आग न जलती थी। पोपले मुंह में फेंक भी न थी। अमर को देखकर बोली-तुम यहां धुएं में कहां आ गए, बेटा? जाकर बाहर बैठो, यह चटाई उठा ले जाओ।

अमर चूर हे के पास जाकर कहा-तू हट जा, मैं आग जलाए देता हूं।

सलोनी ने स्नेहमय कठोरता से कहा-तू बाहर क्यो नहीं जाता? मरदों का इस तरह रसोई में घुसना अच्छा नहीं लगता।

"बुढिया डर रही थी कि कहीं अमरकान्त दो प्रकार के आटे न देख ले। शायद वह उसे दिखाना चाहती थी कि मैं भी गेहूं का आटा खाती हूं। अमर यह रहस्य क्या जाने? बोला-अच्छा तो आटा निकाल दे, मैं गुंथ दें।

सलोनी ने हैरान होकर कहा-तू कैसा लड़का है, भाई! बाहर जाकर क्यों नहीं बैठता?

उसे वह दिन याद आए, जब उसके बच्चे उसे अम्मा-अम्मा कहकर कर लेते थे और वह उन्हें डांटती थी। उस उजड़े हुए घर में आज एक दिया जल रहा था, पर कल फिर वही अधेरा हो जाएगा। वही सन्नाटा। इस युवक की ओर क्यों उसकी इतनी ममता हो रही थी?

कौन जाने कहां से आया है, कहां जाएगी, पर यह जानते हुए भी अमर का सरल बालकों का- सा निष्कपट, व्यवहार, उसका बार-बार घर में आना और हरेक काम करने को तैयार हो जाना, उसकी भूखी मातृ-भावना को सींचती हुआ-सा जान पड़ती था, मानो अपने ही सिधारे हुए बालकों की प्रतिध्वनि कहीं दूर से उसके कानों में आ रही है।

एक बालक लालटेन लिए कंधे पर एक दरी रखे आया और दोनों चीजें उसके पास रखकर बैठ गया। अमर ने पूछा-दरी कहां से लाए?

"काकी ने तुम्हारे लिए भेजी है। वही काकी, जो अभी आई थीं।"

अमर ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा-अच्छा, तुम उनके भतीजे हो। तुम्हारी काकी कभी तुम्हें मारती तो नहीं?

बालक सिर हिलाकर बोला-कभी नहीं। वह तो हमें खेलाती है। दुरजन को नहीं