खेलाती; वह बड़ी बदमाश है।
अमर ने मुस्कराकर पूछा-कहां पढ़ने जाते हो?
बालक ने नीचे का होंठ सिकोड़कर कहा-कहां जाएं, हमें कौन पढ़ाए? मदरसे में कोई जाने तो देता नहीं। एक दिन दादा दोनों को लेकर गए थे। पंडितजी ने नाम लिख लिया; पर हमें सबसे अलग बैठाते थे; सब लड़के हमें 'चमार-चमार' कहकर चिढ़ाते थे। दादा ने नाम कटा लिया।
अमर की इच्छा हुई, चौधरी से जाकर मिले। कोई स्वाभिमानी आदमो मालूम होता है। पूछा--तुम्हारे दादा क्या कर रहे हैं?
बालक ने लालटेन से खेलते हुए कहा-बोतल लिए बैठे हैं। भुने चने धरे हैं, बस अभी बक-झक करेंगे, खूब चिल्लाएंगे, किसी को मारेंगे, किसी को गालियां देंगे। दिन भर कुछ नहीं बोलते। जहां बोतल चढाई कि बक चले।
अमर ने इस वक्त उनसे मिलना उचित न समझा।
सलोनी ने पुकारा–भैया, रोटी तैयार हैं, आओ गरम-गरम खा लो।
अमरकान्त ने हाथ-मुंह धोया और अंदर पहुंचा। पीतल की थाली में रोटियां थीं, पथरी में दही, पत्ते पर आचार, लोटे में पानी रखा हुआ था। थाली पर बैठकर बोला--तुम भी क्यो नहीं खाती?
"तुम खा लो बेटा, मैं फिर खा लूंगी।"
"नहीं, मैं यह न मानूंगा। मेरे साथ खाओ।"
"रसोई जूठी हो जाएगी कि नहीं?"
"हो जाने दो। मैं हीं तो खाने वाला हूं।"
"रसोई में भगवान् रहते हैं। उसे जूठी न करनी चाहिए।"
"तो मैं भी बैठा रहूंगा।"
"भाई, तू बड़ा खराब लड़का है।"
रसाई में दूसरी थाली कहां थी? सलोनी ने हथेली पर बाजरे की रोटियां ले लीं और रसोई के बाहर निकल आई। अमर ने बाजरे की रोटियां देख लीं। बोली-यह न होगा, काकी मुझे तो यह फुलके दे दिए, आप मजेदार रोटियां उड़ा रही हैं।
"तू क्या बाजरे की रोटियां खाएगा बेटा? एक दिन के लिए आ पड़ा, तो बाजरे की रोटियां खिलाऊं?"
"मैं तो मेहमान नहीं हैं। यही समझ लो कि तुम्हारा खोया हुआ बालक आ गया हैं।"
"पहले दिन उस लड़के की भी मेहमानी की जाती है। मैं तुम्हारी क्या मेहमान करूगों, बेटा! रूखी रोटियां भी कोई मेहमानी है? न दारू, न सिकार।"
"मैं तो दारू-शिकार छूता भी नहीं, काकी।"
अमरकान्त ने बाजरे की रोटियों के लिए ज्यादा आग्रह ने किया। बुढ़िया को और दु:ख होता। दोनों खाने लगे। बुढिया यह बात सुनकर बोली-इस उमिर में तो भगतई नहीं अच्छी लगती, बेटा! यही तो खाने-पीने के दिन हैं। भगतई के लिए तो बुढापा है ही।"
"भगत नहीं हूं, काकी! मेरा मन नहीं चाहता।"