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कर्मभूमि: 337
 


पीने की कोई बात नहीं। एक भला आदमी तो गांव में हो जायगा। नहीं, कभी एक चपरासी गांव में आ गया, तो सबकी सांस नीचे-ऊपर होने लगती है।

आध घंटे में सलोनी फिर लौटी और चौधरी से बोलो--तुम्हीं मेरे खेत क्यों बटाई पर नहीं ले लेते?

चौधरी ने घुड़ककर कहा-मुझे नहीं चाहिए। धरे रह अपने खेत।

सलोनी ने अमर से अपील की-- भैया, तुम्हीं सोचो, मैंने कुछ बेजा कहा? बेजाने-सुने किसी को कोई अपनी चीज दे देता है?

अमर ने सांत्वना दी–नहीं काकी, तुमने बहुत ठीक किया। इस तरह विश्वास कर लेने से धोखा हो जाता है।

सलोनी को कुछ ढाढ़म हुआ-तुमसे तो बेटा, मेरी रात ही भर की जान-पहचान है न? जिसके पास मेरे खेत हैं, वह तो मेरा ही भाई-बंद है। उससे छीनकर तुम्हें दे दें, तो वह अपने मन में क्या कहेगा? सोचो, अगर में अनुचित कहती हैं, तो मरे मुंह पर थणड़ मारो। वह मेरे साथ बेईमानी करता है, यह जानती हूँ पर हैं तो अपना ही हाड़-मास उसके मुंह की रोटी छीनकर तुम्हें दे दें तो तुम मुझे भला कहोगे, बोलो?

सलोनी ने यह दलील खुद सोच निकाली थी या किसी न सुझा दी थी, पर इसने गूदड़ को लाजवाब कर दिया।

तीन

दो महीने बीत गए।

पूस की ठंडी रात काली कमली ओढे पड़ी हुई थी। ऊंचा पर्वत किसी विशाल महत्त्वाकांक्षी की भाति, तारिकाओं का मुकुट पहने खड़ा था। झोंपड़ियां जैसे उसकी वह छोटी-छोटी अभिलाषाएं थीं, जिन्हें वह ठुकरा चुका था।

अमरकान्त को झांपड़ी में एक लालटेन जल रही है। पाठशाला खुली हुई है। पंद्रह-बीस नड्के खड़े अभिमन्यु की कथा सुन रहे हैं। अमर खड़ा कथा कह रहा है। सभी लड़के कितने प्रसन्न हैं। उनके पीले कपड़े चमक रहे हैं, आंखें जगमगा रही हैं। शायद वे भो अभिमन्यु जैसे वीर वैसे ही कर्तव्यपरायण होने का स्वप्न देख रहे हैं। उन्हें क्या मालूम, एक दिन उन्हें दुर्योधन और जरासन्धो के सामने घुटने टेकने पड़ेंगे, कितनी बार वे चक्रव्यूहों से भागने की चेष्टा करेंगे, और भाग न सकेंगे।

गूदड़ चौधरी चौपाल में बोतल और कुजो लिए कुछ देर तक विचार में डूबे बैठे रहे। फिर कुंजी फेंक दी। बोतल उठाकरे आले पर रख दी और मुन्नी को पुकारकर 'इडा-अमर भैया से केह, आकर खाना खा ले। इस भले आदमी को जैसे भूख ही नहीं लगती, पहर रात गई, अभी तक खाने-पीने की सुधि नहीं।

मुन्नी ने बोतल की ओर देखकर कहा--तुम जब तक पी लो। मैंने तो इसीलिए नहीं बुलाया।