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338:प्रेमचंद रचनावली-5
 

गूदड़ ने अरुचि से कहा-आज तो पीने को जी नहीं चाहता, बेटी। कौन बड़ी अच्छी चीज हैं?

मुन्नी आश्चर्य से चौधरी की ओर ताकने लगी। उसे आए यहां तीन साल में अधिक हुए। कभी चौधरी को नागा करते नहीं देखा, कभी उनके मुंह से ऐसी विराग की बात नहीं सुनी। सशंक होकर बोली-आज तुम्हारा जी अच्छी नहीं है क्या, दादा?

चौधरी ने हंसकर कहा–जी क्यों नहीं अच्छा है? मंगाई तो थी पीने ही के लिए, पर अब जी नहीं चाहता। अमर भैया की बात मेरे मन में बैठ गई। कहते हैं जहां सौ में अस्मी आदमी भूखों मरते हों, वहां दारू पीना गरीब का रकत पीने के बराबर है। कोई दसरा कहता तो न मानता; पर उनकी बात न जाने क्यों दिल में बैठ जाती है?

मुन्नी तित हो गई–तुम उनके कहने में न आओ, दादा। अब छोड़ना तुम्हें अवगुन करेगा। कहीं देह में दरद न होने लगे।

चौधरी ने इन विचारों को जैसे तुच्छ समझकर कहा-चाहे दरद हो, चाहे बाई हो, अब पीऊंगा नहीं। जिंदगी में हजारों रुपये की दारू पी गया। सारी कमाई नसे में उड़ा दी। उतने रुपये से कोई उपकार का काम करता, तो गांव का भला होता और जसे भी मिलता। मूरग्व को इसी से बुरा कहा है। साहब लोग सुना है, बहुत पीते हैं, पर उनकी बात निराली है। यह राज करते हैं। लूट का धन मिलता है, वह न पिएं, तो कौन पीए? देखती है, अब कासी और पयाग को भी कुछ लिखने-पढ़ने का चस्का लगने लगा है।

पाठशाला बद हुई। अमर तेजा और दुरजन की उंगली पकड़े हुए आकर चौधरी से बोला-मुझे तो आज देर हो गई है दादा, तुमने खा-पी लिया न?

चौधरी स्नेह में डूब गए-हां, और क्या, मैं ही तो पहर रात से जुला हुआ हूं, मैं ही तो जूते लेकर रिसीकेस गया था। इस तरह जाने दोगे, तो मुझे तुम्हारी पाउँसाला बंद करनी पड़ेगी। अमर की पाठशाला में अब लड़कियां भी पढ़ने लगी थी। उसके आनंद का पारावार न धा।

भोजन करके चौधरी सोए। अमर चलने लगा, तो पुन्नी ने कहा-आज तो लाला तुमने बड़ा भारी पाला मारा। दादा ने आज एक घंटे भी नहीं पी।

अमर उछलकर बोला—कुछ कहते थे?

"तुम्हारा जस गाते थे, और क्या कहते? में तो ममझती थी, मरकर ही छोड़ेंगे, पर तुम्हारा उपदेस काम कर गया।"

अमर के मन में कई दिन से मुन्नी का वृत्तांत पूछने की इच्छा हो रही थी, पर अवमर न पाता था। आज मौका पाकर उसने पूछा--तुम मुझे नहीं पहचानती हो, लेकिन मैं तुम्हें पहचानता हूं।

मुन्नी के मुख का रंग उड़ गया। उसने चुभती हुई आंखों से अमर को देखकर कहा--तुमने कह दिया, तो मुझे याद आ रहा है। तुम्हें कहीं देखा है।

"काशी के मुकदमे की बात याद करो।"

"अच्छा, हां याद आ गया। तुम्हीं डॉक्टर साहब के साथ रुपये जमा करते फिरते थे, मगर तुम यहां कैसे आ गए?"