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कर्मभूमि: 339
 

"पिताजी से लड़ाई हो गई। तुम यहां कैसे पहुंचीं और इन लोगों के बीच में कैसे आ पड़ीं?"

मुन्नी घर में जाती हुई बोली-फिर कभी बताऊंगी; पर तुम्हारे हाथ जोड़ती हैं, यहां किसी से कुछ न कहना।

अमर ने अपनी कोठरी में जाकर बिछावन के नीचे से धोतियों का एक जोड़ा निकाला और सलोनी के घर पहुंचा सलोनी भीतर पड़ी नींद को बुलाने के लिए गा रही थी। अमरे की आवाज सुनकर टट्टी खोल दी और बोली-क्या है बेटा? आज तो बड़ा अंधेरा है। खाना खा चुके? मैं तो अभी चरखा कात रही थी। पीठ दुखने लगी, तो आकर पड़ रही।

अमर ने धोतियों का जोड़ा निकालकर कहा- मैं यह जोड़ा लाया हूं। इसे ले लो। तुम्हारा सूत पूरा हो जाएगा, तो में ले लूंगा।

सलोनी उस दिन अमर पर अविश्वास करने के कारण उससे सकुचाती थी। ऐसे भले आदमी पर उसने क्यों अविश्वास किया। लाती हुई बोली-अभी तुम क्यों लाए भैया, सूत कत जाता, तो ले आते।

अमर के हाथ में लालटेन थी। बुढिया ने जोड़ा ले लिया और उसकी तहों को खोलकर ललचाई दुई गंवों से देखने लगी। सहसा वह बोल उठी-यह तो दो हैं बेटा, मैं दो लेकर क्या करूंगी। एक तुम ले जाओ।

अमरकान्त ने कहा तुम दोनों रख लो, काकी! एक से कैसे काम चलेगा?

सलोनी को अपने जीवन के सुनहरे दिनों में भी दो धोतियां मयस्सर न हुई थीं। पति और पुत्र के राज में भी एक धोती से ज्यादा कभी न मिलो। और आज ऐसी सुंदर दो-दो साड़ियां मिल रही हैं, जबरदस्ती दी जा रही हैं। उसके अंत:करण से मानो दूध की धारा बहने लगी। उसका सारा वैधव्य, सारा मातृत्व आशीर्वाद बनकर उसके एक-एक रोम को स्पंदित करने लगा।

अमरकान्त कोठरी से बाहर निकल आया। सलोनी रोती रही।

अपनी झोंपड़ी में आकर अमर कुछ अनिश्चित दशा में खड़ा रहे। फिर अपनी डायरी लिखने बैठ गया। उसी वक्त चौधरी के घर का द्वार खुला और मुन्न, कलसा लिए पानी भरने निकली। इधर लालटेन जलती देखकर वह इधर चली आई, और द्वार पर खड़ी होकर बोली-अभी सोए नहीं लाला, राते तो बहुत हो गई।

अमर बाहर निकलकर बोला- हां, अभी नींद नहीं आई। क्यी पानी नहीं था?

"हां, आज सब पानी उठ गया। अब जो प्यास लगी, तो कहीं एक बूंद नहीं।"

"लाओ, मैं खींच ला दू। तुम इस अंधेरी रात में कहां जाओगी?"

"अंधेरी रात में शहर वालों को डर लगता है। हम तो गांव के हैं।"

"नहीं मुन्नी, मैं तुम्हें न जाने दूंगा।"

"तो क्या मेरी जान तुम्हारी जान से प्यारी है?"

"मेरी जैसी एक लाख जाने तुम्हारी जान पर न्यौछावर हैं।"

मुन्नी ने उसकी ओर अनुरक्त नेत्रों से देखा--तुम्हें भगवान् ने मेहरिया क्यों नहीं बनाया, लाला? इतना कोमल हृदय तो किसी मर्द का नहीं देखा। मैं तो कभी-कभी सोचती हैं, तुम