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342:प्रेमचंद रचनावली-5
 


मिलने लगे हैं। लिखने को तो बहुत-सी बातें हैं, पर लिख़ूगी नहीं। आप अगर यहां आएं तो छिपकर आइएगा; क्योंकि लोग झल्लाए हुए हैं। हमारे घर कोई नहीं आता-जाता।"

दूसरा खत सलीम का है: "मैंने तो समझा था, तुम गंगाजी में डूब मरे और तुम्हारे नाम को, प्याज की मदद से, दो-तीन कतरे आंसू बहा दिए थे और तुम्हारी रूह की नजान के लिए एक बरहमन को एक कौड़ी खैरात भी कर दी थी; मगर यह मालूम करके रंज हुआ कि आप जिंदा हैं और मेरा मातम बेकार हुआ। आंसुओं का तो गम नहीं, आंखों को कुछ फायदा ही हुआ, मगर उस कौड़ी का जरूर गम है। भले आदमी, कोई पांच-पांच महीने तक यों खामोशी अख्तियार करता है! खैरियत यही है कि तुम मौजूद नहीं हो। बड़े कौमी खादिम की दुर्म बने हो। जो आदमी अपने प्यारे दोस्तों से इतनी बेवफाई करे, वह कौम की खिदमत क्या खाक करेगा?

"खुदा की कसम रोज तुम्हारी याद आती थी। कॉलेज जाता हूं, जी नहीं लगता। तुम्हारे साथ कॉलेज की रौनक चली गई। उधर अब्बाजान सिविल सर्विस की रट लगरा-लगाकर और भी जान लिए लेते हैं। आखिर कभी आओगे भी, या काले पानी को सजा भोगते रहोगे?

"कॉलेज के हाल साबिक दस्तूर हैं-वही ताश हैं, वही लेक्चरों से भागना है, वही मैच हैं। हां, कांवोकेशन का ऐड्रेस अच्छा रहा। वाइस चांलसर ने सादा जिंदगी पर जोर दिया। तुम होते, तो उस ऐड्रेस का मजा उठाते। मुझे फीका मालूम होता था। सादा जिंदगी का सबक तो सब देते हैं, पर कोई नमूना बनकर दिखाता नहीं। यह जो अनगिनती लेक्चरर और प्रोफेसर हैं, क्या सब-के-सब सादा जिंदगी के नमूने हैं? वह तो लिविंग का स्टैंडर्ड ऊंचा कर रहे हैं, तो फिर लड़के भी क्यों न ऊंचा करें, क्यों न बहती गंगा में हाथ धोवें? वाइस चांसलर साहब, मालूम नहीं सादगी का सबक अपने स्टाफ को क्यों नहीं देते? प्रोफेसर भाटिया के पास तीस जोड़े जूते हैं और बाज--बाज पचास रुपये के हैं। खैर, उनकी बात छोड़ो। प्रोफेसर चक्रवर्ती तो बड़े किफायतशीर मशहूर हैं। जोरू न जांता, अल्ला मियां से नाता। फिर भी जानते हो कितने नौकर हैं उनके पास? कुल बारह! तो भाई, हम लोग तो नौजवान हैं, हमारे दिलों में नया शौक है, नए अरमान हैं। वर वालों से मागेंगे; न देंगे, तो लड़ेंगे, दोस्तों से कर्ज लेंगे, दूकानदारों की खुशामद करेंगे, मगर शान से रहेंगे जरूर। वह जहन्नुम में जा रहे हैं, तो हम भी जहन्नुम जाएंगे, मगर उनके पीछे-पीछे।

"सकीना का हाल भी कुछ सुनना चाहते हो? मामा को बोसों ही बार भेजा, कपड़े भेजे, रुपये भेजे; पर कोई चीज न ली। मामा कहती हैं, दिन-भर एकाध चपाती खा ली, तो खा ली, नहीं चुपचाप पड़ी रहती है। दादी से बोलचाल बंद है। कल तुम्हारा खत पाते ही उसके पास भेज दिया था। उसका जवाब जो आया, उसकी हू-ब-हू नकल यह है। असली खत उस वक्त देखने को पाओगे, जब यहां आओगे:

"बाबूजी, आपको मुझ बदनसीब के कारण यह सजा मिली, इसका मुझे बड़ा रंज है। और क्या कहूं? जीती हूं और आपको याद करती हैं। इतना अरमान है कि मरने के पहले एक बार आपको देख लेती, लेकिन इसमें भी आपकी बदनामी ही है, और मैं तो बदनाम हो ही चुकी। कल आपका खत मिला, तब से कितनी बार सौदा उठ चुका है कि आपके पास चली जाऊं। क्या आप नाराज होंगे? मुझे तो यह खौफ नहीं है। मगर दिल को समझाऊंगी और