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कर्मभूमि: 345
 


जम रहा है। तुम चलकर कह दो, तो साइत चली जाए। कौन रोज-रोज यह दिन आता है। बिरादरी वाली बात है। लोग कहेंगे, हमारे यहां काम आ पड़ा, तो मुंह छिपाने लगे।

अमर ने धर्म-संकट में पड़कर कहा--तुमने समझाया नहीं?

फिर अंदर जाकर कहा-मुझसे नाराज हो गई, मुन्नी?

मुन्नी आंगन में आकर बोली-तुम मुझसे नाराज हो गए हो कि मैं तुमसे नाराज हो गई?

"अच्छा, मेरे कहने से चलो।"

"जैसे बच्चे मछलियों को खेलाते हैं, उसी तरह तुम मुझे खेला रहे हो, लाला। जब चाहा रुला दिया; जब चाहा हंसा दिया।"

"मेरी भूल थी, मुन्नी! क्षमा करो।"

लाला, अब तो मुन्नी तभी नाचेगी, जब तुम उसका हाथ पकड़कर कहोगे-चलो हम-तुम नाचें। वह अब और किसी के साथ न नाचेगी।"

तो अब नाचना सीखू?

मुन्नी ने अपनी विजय का अनुभव करके कहा-मेरे साथ नाचना चाहोगे, तो आप सीखोगे।

"तुम सिखा दोगी?"

"तुम मुझे रोना सिखा रहे हो, मैं तुम्हें नाचना सिखा दूंगी।"

"अच्छा चलो।

कॉलेज के सम्मेलनों में अमर कई बार ड्रामा खेल चुका था। स्टेज पर नाचा भी था, गाया भी था, पर उस नाच और इस नाच में बड़ा अंतर था। वह विलासियों की कर्म-क्रीड़ा थी, यह श्रमिकों की स्वच्छंद केलि। उसका दिल सहमा जाता था।

उसने कहा-मुन्नी, तुमसे एक वरदान मांगता हूं।

मुन्नी ने ठिठककर कहा-तो तुम नाचोगे नहीं?

"यही तो तुमसे वरदान मांग रहा हूं।"

अमर ‘ठहरो-ठहरो' कहता रहा पर मुन्नी लौट पड़ो।

अमर भी अपनी कोठरी में चला आया, और कपड़े पहनकर पंचायत में चला गया। उसका सम्मान बढ़ रहा है। आस-पास के गांवों में भी जब कोई पंचायत होती है, तो उसे अवश्य बुलाया जाता है।

छ:

सलोनी काकी ने अपने घर की जगह पाठशाले के लिए दे दी है। लड़के बहुत आने लगे हैं। उस छोटी-सी कोठरी में जगह नहीं है। सलोनी से किसी से जगह मांगी नहीं, कोई दबाव भी नहीं डाला गया। बस, एक दिन अमर और चौधरी बैठे बातें कर रहे थे कि नई शाला कहां बनाई जाए, गांव में तो बैलों के बांधने की जगह नहीं। सलोनी उनकी बातें सुनती रही। फिर एकाएक बोल उठी-मेरा घर क्यों नहीं ले लेते? बीस हाथ पीछे खाली जगह पड़ी है। क्या