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350:प्रेमचंद रचनावली-5
 

गुदड़ लपके हुए गंगा की ओर चले और एक गोली के टप्पे से पुकारकर बोले—यह क्यों खड़े हो भैया, चलो घर, सब झगड़ा तय हो गया।

अमर विचार—मग्न था। आवाज उसके कानों तक न पहुंची।

चौधरी ने और समीप जाकर कहा-यहां कब तक खड़े रहोगे भैया?

"नहीं दादा, मुझे यहीं रहने दो। तुम लोग वहां काट-कूट करोगे, मुझसे देखा न जाएगा। जब तुम फुर्सत पा जाओगे, तो मैं आ जाऊंगा।

"बहू कहती थी, तुम हमारे घर खाने को भी नहीं कहते हो?"

"हां दादा, आज तो न खाऊंगी, मुझे कै हो जाएगी।"

"लेकिन हमारे यहां तो आए दिन यही धंधा लगा रहता है।"

"दो-चार दिन के बाद मेरी भी आदत पड़ जाएगी।"

"तुम हमें मन में राक्षस समझ रहे होगे?"

अमर ने छाती पर हाथ रखकर कहा—नहीं दादा, मैं तो तुम लोगों से कुछ सीखने, तुम्हारी कुछ सेवा करके अपना उद्धार करने आया हूं। यह तो अपनी-अपनी प्रथा है। चीन एक बहुत बड़ा देश है। वहां बहुत से आदमी बुद्ध भगवान् को मानते हैं। उनके धर्म में किसी जानवर को मारना पाप है। इसलिए वह लोग मरे हुए जानवर ही खाते हैं। कुत्ते, बिल्ली, गीदड़ किसी को भी नहीं छोड़ते। तो क्या वह हमसे नीच हैं? कभी नहीं। हमारे ही देश में कितने ही ब्राह्मण क्षेत्री मांस खाते हैं? वह जीभ के स्वाद के लिए जीव-हत्या करते हैं। तुम उनसे तो कहीं अच्छे हो।

गूदड़ ने हंसकर कहा—भैया, तुम बड़े बुद्धिमान हो, तुमसे कोई न जीतेगा। चलो, अब कोई मुरदा नहीं खाएगा। हमें लोगों ने तय कर लिया। हमने क्या तय किया, बहू ने तय किया। मगर खाल तो न फेंकनी होगी?

अमर ने प्रसन्न होकर कहा-नहीं दादा, ख़ाल क्यों फेंकोगे? जूते बनाना तो सबसे बड़ी सेवा है। मगर क्यों भाभी बहुत बिगड़ी थीं?

गूदड़ बोला-बिगड़ी ही नहीं थी भैया, वह तो जान देने को तैयार थी। गाय के पास बैठ गई और बोली-अब चलाओ गंडासा, पहला गंडासा मेरी गर्दन पर होगा। फिर किसकी हिम्मत थी कि गंडासा चलाता।


अमर का हृदय जैसे एक छलांग मारकर मुन्नी के चरणों पर लोटने लगा।

सात

कई महीने गुजर गए। गांव में फिर मुरदा मांस न आया। आश्चर्य की बात तो यह थी कि दूसरे गांव के चमारों ने भी मुरदा मांस खाना छोड़ दिया। शुभ उद्योग कुछ संक्रामक होता है।

अमर की शाला अब नई इमारत में आ गई थी। शिक्षा को लोगों को कुछ ऐसा चस्का पड़ गया था कि जवान तो जवान, बूढ़े भी आ बैठते और कुछ न कुछ सीख जाते। अमर की शिक्षा-शैली आलोचनात्मक थी। अन्य देशों की सामाजिक और राजनैतिक प्रगति, नए—