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352:प्रेमचंद रचनावली-5
 

"नहीं, कहानी नहीं, सच्ची बात है।"

अमर ने मुसलमानों के हमले, क्षत्राणियों के जुहार और राजपूत वीरों के शौर्य की चर्चा करते हुए कहा-उन देवियों को आग में जल भरना मंजूर था; पर यह मंजूर न था कि परपुरुष की निगाह भी उन पर पड़े। अपनी आन पर मर मिटती थीं। हमारी देवियों का यह आदर्श था। आज यूरोप का क्या आदर्श है? जर्मन सिपाही फ्रांस पर चढ़ आए और पुरुषों से गांव खाली हो गए, तो फ्रांस की नारियां जर्मन सैनिकों ही से प्रेम क्रीड़ा करने लगीं।

मुन्नी नाक सिकोड़कर बोली—बड़ी चंचल हैं सब; लेकिन उन स्त्रियों से जीते जी कैसे जला जाता था?

अमर ने पुस्तक बंद कर दी–बड़ा कठिन है, मुन्नी! यहां तो जरा-सी चिंगारी लग जाती है, तो बिलबिला उठते हैं। तभी तो आज सारा संसार उनके नाम के आगे सिर झुकाता है। मैं तो जब यह कथा पढ़ता हूं तो रोएं खड़े हो जाते हैं। यही जी चाहता है कि जिस पवित्र—भूमि पर उन देवियों की चिताएं बनीं, उसकी राख सिर पर चढ़ाऊ, आंखों में लगाऊ और वहीं मर जाऊं।

मुन्नी किसी विचार में डूबी भूमि की ओर ताक रही थी।

अमर ने फिर कहा—कभी-कभी तो ऐसा हो जाता था कि पुरुषों को घर के माया-मोह से मुक्त करने के लिए स्त्रियां लड़ाई के पहले ही जुहार कर लेती थीं। आदमी की जान इतनी प्यारी होती है कि बूढ़े भी मरना नहीं चाहते। हम नाना कष्ट झेलकर भी जीते हैं, बड़े-बड़े ऋषि-महात्मा भी जीवन का मोह नहीं छोड़ सकते; पर उन देवियों के लिए जीवन खेल था।

मुन्नी अब भी मौन खड़ी थी। उसके मुख का रंग उड़ा हुआ था, मानो कोई दुस्सा अंतर्वेदना हो रही है।

अमर ने घबराकर पूछा—कैसा जी है, मुन्नी? चेहरा क्यों उतरा हुआ है?

मुन्नी ने क्षीण मुस्कान के साथ कहा-मुझसे पूछते हो? क्या हुआ है?

"कुछ बात तो है! मुझसे छिपाती हो?"

"नहीं जी, कोई बात नहीं।"

एक मिनट के बाद उसने फिर कहा—तुमसे आज अपनी कथा कहू, सुनोगे?

"बड़े हर्ष से! मैं तो तुमसे कई बार कह चुका। तुमने सुनाई ही नहीं।"

"मैं तुमसे डरती हूं। तुम मुझे नीच और क्या-क्या समझने लगोगे।"

अमर ने मानो क्षुब्ध होकर कहा—अच्छी बात है, मत कहो। मैं तो जो कुछ हूँ वही रहूंगा, तुम्हारे बनाने से तो नहीं बन सकता।

मुन्नी ने हारकर कहा-तुम तो लाला, जरा-सी बात पर चिढ़ जाते हो, जभी स्त्री से तुम्हारी नहीं पटती। अच्छा लो, सुनो। जो जी में आए समझना-मैं जब काशी से चली, तो थोड़ी देर तक तो मुझे होश ही न रहा-कहां जाती हैं, क्यों जाती हूं, कहां से आती हूं? फिर मैं रोने लगी। अपने प्यारों का मोह सागर की भाँति मन में उमड़ पड़ा। और मैं उसमें डूबने-उतराने लगी। अब मालूम हुआ, क्या कुछ खोकर चली जा रही हैं। ऐसा जान पड़ता था कि मेरा बालक मेरी गोद में आने के लिए हुमक रहा है। ऐसा मोह मेरे मन में कभी न जागा था। मैं उसको याद करने लगी। उसका हंसना और रोना उसकी तोतली बातें, उसका लटपटाते