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358:प्रेमचंद रचनावली-5
 

लें। देवियों और देवताओं की मनौतियां कर रही थी कि मेरे प्यारों की रक्षा करना।

ज्योंही बाबूजी लौटे, मैंने धीरे से किवाड़ खोलकर पूछा-किधर गए? कुछ और कहते थे।

बाबूजी ने तिरस्कार—भरी आंखों से देखकर कहा-कहते क्या, मुंह से आवाज भी तो निकले। हिचकी बंधी हुई थी। अब भी कुशल है, जाकर रोक लो। वह गंगाजी की ओर हो गए हैं। तुम इतनी दयावान होकर भी इतनी कठोर हो, यह आज ही मालूम हुआ। गरीब, बच्चों की तरह फूट-फूटकर रो रहा था।

मैं संकट की उस दशा को पहुंच चुकी थी, जब आदमी परायों को अपना समझने लगता है। डांटकर बोली—तब भी तुम दौड़े यहां चले आए। उनके साथ कुछ देर रह जाते, तो छोटे न हो जाते, और न यहां देवीजी को कोई उठा ले जाता। इस समय वह आपे में नहीं हैं, फिर भी तुम उन्हें छोड़कर भागे चले आए।

देवीजी बोलीं—यहां न दौड़े आते, तो क्या जाने मैं कहीं निकल भागती? लो, आकर घर में बैठो। मैं जाती हूँ। पकड़कर घसीट न लाऊं, तो अपने बाप की नहीं।

धर्मशाला में बीसों ही यात्री टिके हुए थे। सब अपने-अपने द्वार पर खड़े यह तमाशा देख रहे थे। देवीजी ज्योंही निकलीं, चार-पांच आदमी उनके साथ हो लिए। आध घंटे में सभी लौट आए। मालूम हुआ कि वह स्टेशन की तरफ चले गए।

पर मैं जब तक उन्हें गाड़ी पर सवार होते न देख लू चैन कहां? गाड़ी प्रात:काल जाएगी। रात-भर वह स्टेशन पर रहेंगे। ज्योंही अंधेरा हो गया, मैं स्टेशन जा पहुंची। वह एक वृक्ष के नीचे कंबल बिछाए बैठे हुए थे। मेरा बच्चा लोटे को गाड़ी बनाकर डोर से खींच रहा था। बार-बार गिरता था और उठकर खींचने लगता था। मैं एक वृक्ष की आड़ में बैठकर यह तमाशा देखने लगी। तरह-तरह की बातें मन में आने लगीं। बिरादरी का ही तो डर है। में अपने पति के साथ किसी दूसरी जगह रहने लगे, तो बिरादरी क्या कर लेगी, लेकिन क्या अब मैं वह हो सकती हूं, जो पहले थी?

एक क्षण के बाद फिर वही कल्पना। स्वामी ने साफ कहा है, उनका दिल साफ है। बातें बनाने की उराको आदत नहीं। तो वह कोई बात कहेंगे ही क्यों, जो मुझे लगे। गड़े मुरद उखाड़ने की उनकी आदत नहीं। वह मुझसे कितना प्रेम करते थे। अब भी उनका हृदय वहीं है। मैं व्यर्थ के संकोच में पड़कर उनका और अपना जीवन चौपट कर रही हूँ। लेकिन मैं अब क्या वह हो सकती हैं, जो पहले थी? नहीं, अब मैं वह नहीं हो सकती।

पतिदेव अब मेरा पहले से अधिक आदर करेंगे। मैं जानती हूं। मैं घी का घड़ा भी लुढ़का दूँगी, तो कुछ न कहेंगे। वह उतना ही प्रेम करेंगे; लेकिन वह बात कहां, जो पहले थी। अब तो मेरी दशा उस रोगिणी की-सी होगी, जिसे कोई भोजन रुचिकर नहीं होता।

तो फिर मैं जिंदा ही क्यों रहूं? जब जीवन में कोई सुख नहीं, कोई अभिलाषा नहीं, तो वह व्यर्थ है। कुछ दिन और रो लिया, तो इससे क्या? कौन जानता है, क्या-क्या कलंक सहने पड़े, क्या-क्या दुर्दशा हो? पर जाना कहीं अच्छा।

यह निश्चय करके मैं उठी। सामने ही पतिदेव सो रहे थे। बालक भी पड़ा सोता था। ओह! कितना प्रबल बंधन था! जैसे सूम का धन हो। वह उसे खाता नहीं, देता नहीं, इसके