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कर्मभूमि : 359
 

सिवा उसे और क्या संतोष है कि उसके पास धन है। इस बात से ही उसके मन में कितना बल आ जाता है। मैं उसी मोह को तोड़ने जा रही थी।

मैं डरते-डरते, जैसे प्राणों को आंखों में लिए, पतिदेव के समीप गई, पर वहां एक क्षण भी खड़ी न रह सकी। जैसे लोहा खिंचकर चुंबक से जा चिपटता है, उसी तरह मैं उनके मुख की ओर खिंची जा रही थी। मैंने अपने मन का सारा बल लगाकर उसका मोह तोड़ दिया और उसी आवेश में दौड़ी हुई गंगा के तट पर आई। मोह अब भी मन में चिपटा हुआ था। मैं गंगा में कूद पड़ी।

अमर ने कातर होकर कहा—अब नहीं सुना जाता, मुन्नी! फिर कभी कहना।

मुन्नी मुस्कराकर बोली-वाह, अब रह क्या गया? मैं कितनी देर पानी में रही, कह नहीं सकती, जब होश आया, तो इसी घर में पड़ी हुई थी। मैं बहती चली जाती थी। प्रातःकाल चौधरी का बड़ा लड़का सुमेर गंगा नहाने गया और मुझे उठा नाया। तब में मैं यहीं हूं। अछूतों की इस झोंपड़ी में मुझे जो सुख और शाति मिली उसका बखान क्या करूँ काशी और प्रयाग मुझे भाभी कहते हैं, पर सुमेर मुझे बहन कहता था। में अभी अच्छी तरह उठने-बैठने न पाई थी कि वह परलोक सिधार गया।

अमर के मन में एक कांटा बराबर खटक रहा था। वह कुछ तो निकला, पर अभी कुछ बाकी था।

"सुमेर को तुमसे प्रेम तो होगा ही?"

मुन्नी के तेवर बदल गए—हां था, और थोड़ा नहीं, बहुत था, तो फिर उसमें मेरा क्या बस? जब मैं स्वस्थ हो गई, तो एक दिन उसने मुझसे अपना प्रेम प्रकट किया। मैंने क्रोध को हंसी में लपेटकर कहा-क्या तुम इस रूप में मुझसे नेकी का बदला चाहते हो? अगर यह नीयत है, तो मुझे फिर ले जाकर गंगा में डुबा दो। अगर इस नीयत से तुमने मेरी प्राण-रक्षा की, तो तुमने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया। तुम जानते हो, मैं कौन हूँ? राजपूतनी हूँ। फिर कभी भूलकर भी मुझसे ऐसी बात न कहना, नहीं गंगा यहां से दूर नही हैं। सुमेर ऐसा लज्जित हुआ कि फिर मुझसे बात तक नहीं की, पर मेरे शब्दों ने उसका दिल तोड़ दिया। एक दिन मेरी पसलियों में दर्द होने लगा। उसने समझा भूत का फेर हैं। ओझा को बुलाने गया। नदी चढ़ी हुई थी। डूब गया। मुझे उसकी मौत का जितना दुख हुआ उतना ही अपने सगे भाई के मरने का हुआ था।

नीचों में भी ऐसे देवता होते हैं, इसका मुझे यही आकर पता लगा। वह कुछ दिन और जी जाता, तो इस घर के भाग जाग जाते। सारे गांव को गुलाम था। कोई गाली दे, डाटे, कभी जवाब न देता।

अमर ने पूछा—तब से तुम्हें पति और बच्चे की खबर न मिली होगी?

मुन्नी की आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे। रोते-रोते हिचकी बंध गई। फिर सिसक-सिसककर बोली—स्वामी प्रातःकाल फिर धर्मशाला में गए। जब उन्हें मालूम हुआ कि मैं रात को वहां नहीं गई, तो मुझे खोजने लगे। जिधर कोई मेरा पता बता देता उधर ही चले जाते।

एक महीने तक वह सारे इलाके में मारे-मारे फिरे। इसी निराशा और चिंता में वह कुछ सनक गए। फिर हरिद्वार आए, अब की बालक उनके साथ न था। कोई पूछता तुम्हारा लड़का क्या हुआ, तो हँसने लगते। जब मैं अच्छी हो गई और चलने-फिरने लगी, तो एक दिन जी