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कर्मभूमि: 363
 

है। वह ईश्वर को भी अपने धन के आगे झुकाना चाहता है। लालाजी का व्यथित हृदय आज सोने और रेशम से जगमगती हुई प्रतिमा में धैर्य और संतोष का संदेश न पा सका। कल तक यही प्रतिमा उन्हें बल और उत्साह प्रदान करती थी। उसी प्रतिमा से आज उनका विपद्ग्रस्त मन विद्रोह कर रहा था। उनकी भक्ति का यही पुरस्कार है? उनके स्नान और व्रत और निष्ठा का यही फल है।

वह चलने लगे तो ब्रह्मचारी बोले—लालाजी, अबकी यहां श्री बाल्मीकीय कथा का विचार है।

लालाजी ने पीछे फिरकर कहा—हां—हां, होने दो।

एक बाबू साहब ने कहा—यहां किसी में इतना सामर्थ्य नहीं है। आप ही हिम्मत करें, तो हो सकती है।

समरकान्त ने उत्साह से कहा—हां—हां, मैं उसका सारा भार लेने को तैयार हूं। भगवद् जन से बढ़कर धन का सदुपयोग और क्या होगा?

उनका यह उत्साह देखकर लोग चकित हो गए। वह कृपण थे और किसी धर्मकार्य में अग्रसर न होते थे। लोगों ने समझा था, इसमें दस-बीस रुपये ही मिल जायं, तो बहुत है। उन्हें यों बाजी मारते देखकर और लोग भी गरमाए। सेठ धनीराम ने कहा—आपसे सारा भार लेने को नहीं कहा जाता, लालाजी। आप लक्ष्मी—पात्र हैं सही, पर औरों को भी तो श्रद्धा है। चंदे से होने दीजिए।

समरकान्त बोले—तो और लोग आपस में चंदा कर ले। जितनी कमी रह जाएगी, वह में पूरी कर दूंगा।

धनीराम को भय हुआ, कहीं यह महाशय सस्ते न छूट जाएं। बोले—यह नहीं, आपको जितना लिखना हो लिख दें।

समरकान्त ने होड़ के भाव से कहा—पहले आप लिखिए।

कागज, कलम, दावात लाया गया, धनीराम ने निरवा एक सौ रुपये। समरकान्त ने ब्रह्मचारीजी से पूछा—आपके अनुमान से कुल कित—खर्च होगा?

ब्रह्मचारीजी का तख़मीना एक हजार का था।

समरकान्त ने आठ सौ निन्यानवे लिख दिए। और वहां से चल दिए। सच्ची श्रद्धा की कमी को वह धन से पूरा करना चाहते थे। धर्म की क्षति जिस अनुपात से होती है, उसी अनुपात से आडंबर की वृद्धि होती है।

दो

अमरकान्त का पत्र लिए हुए नैनी अंदर आई, तो सुखदा ने पूछा—किसका पत्र है? नैना ने खत पाते ही पढ़ डाला था। बोली–भैया का।

सुखदा ने पूछा—अच्छा उनका खत है? कहां हैं?

"हरिद्वार के पास किसी गांव में हैं।"