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365:प्रेमचंद रचनावली-5
 

चार-पांच बार की मुख्तसर मुलाकातों से मुझे उन पर इतना एतबार हो गया है कि मैं उम्र भर उनके नाम पर बैठी रह सकती हूं। मैं अब पछताती हूं कि क्यों न उनके साथ चली गई। मेरे रहने से उन्हें कुछ तो आराम होता। कुछ तो उनकी खिदमत कर सकती। इसका तो मुझे यकीन है कि उन पर रंग-रूप का जादू नहीं चल सकता। हूर भी आ जाय, तो उसकी तरफ आंखें उठाकर न देखेंगे, लेकिन खिदमत और मोहब्बत का जादू उन पर बड़ी आसानी से चल सकता है। यही खौफ है। मैं आपसे सच्चे दिल से कहती हूँ बहन, मेरे लिए इससे बड़ी खुशी की बात नहीं हो सकती कि आप और वह फिर मिल जायं, आपस की मनमुटाव दूर हो जाय।

मैं उस हालत में और भी खुश रहूंगी। मैं उनके साथ न गई, इसका यही सबब था, लेकिन बुरा न मानो तो एक बात कहूं?

वह चुप होकर सुखदा के उत्तर का इंतजार करने लगी। सुखदा ने आश्वासन दिया-तुम जितनी साफ दिली से बातें कर रही हो, उससे अब मुझे तुम्हारी कोई बात भी बुरी न मालूम होगी। शौक से कहो।

सकीना ने धन्यवाद देते हुए कहा—अब तो उनका पता मालूम हो गया है, आप एक बार उनके पास चली जायं। वह खिदमत के गुलाम हैं और खिदमत से ही आप उन्हें अपना सकती हैं।

सुखदा ने पूछा—बस, या और कुछ?

"बस, और मैं आपको क्या समझाऊंगी, आप मुझसे कहीं ज्यादा समझदार हैं।"

"उन्होंने मेरे साथ विश्वासघात किया है। मैं ऐसे कमीने आदमी की खुशामद नहीं कर सकती। अगर आज मैं किसी मरद के साथ चली जाऊ, तो तुम समझती हो, वह मुझे मनाने जाएंगे? वह शायद मेरी गर्दन काटने जायं। मैं औरत हूँ, और औरत का दिल इतना कड़ा नहीं होता; लेकिन उनकी खुशामद तो मैं मरते दम तक नहीं कर सकती।"

यह कहती हुई सुखदा उठ खड़ी हुई। सकीना दिल में पछताई कि क्यों जरूरत से ज्यादा बहनापा जताकर उसने सुखदा को नाराज़ कर दिया। द्वार तक माफी मांगती हुई आई।

दोनों तांगे पर बैठीं, तो नैना ने कहा—तुम्हें क्रोध बहुत जल्द आ जाता है, भाभी!

सुखदा ने तीक्ष्ण स्वर में कहा—तुम तो ऐसा कहोगी ही, अपने भाई की बहन हो न। संसार में ऐसी कौन औरत है, जो ऐसे पति को मनाने जाएगी? हां, शायद सकीना चली जाती, इसलिए कि उसे आशातीत वस्तु मिल गई है।

एक क्षण के बाद फिर बोली—मैं इससे सहानुभूति करने आई थी; पर यहां से पराम्त होकर जा रही हूँ। इसके विश्वास ने मुझे परास्त कर दिया। इस छोकरी में वह सभी गुण हैं, जो पुरुषों को आकृष्ट करते हैं। ऐसी ही स्त्रियां पुरुषों के हृदय पर राज करती हैं। मेरे हृदय में कभी इतनी श्रद्धा न हुई। मैंने उनसे हंसकर बोलने, हास-परिहा करने और अपने रूप और यौवन के प्रदर्शन में ही अपने कर्तव्य का अंत समझ लिया। न कभी प्रेम किया, न प्रेम पाया। मैंने बरसों में जो कुछ न पाया, वह इसने घंटों में पा लिया। आज मुझे कुछ-कुछ ज्ञात हुआ कि मुझमें क्या त्रुटियां हैं? इस छोकरी ने मेरी आंखें खोल दी।