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कर्मभूमि: 373
 

हैं, खुद भ्रष्ट नहीं होते।

सहसा ब्रह्मचारी ने गरजकर कहा—तुम लोग क्या यहां बलवा करने आए हो ठाकुरजी के मंदिर के द्वार पर?

एक आदमी ने आगे बढ़कर कहा—हम फौजदारी करने नहीं आए हैं। ठाकुरजी के दर्शन करने आए हैं।

समरकान्त ने उस आदमी को धक्का देकर कहा—तुम्हारे बाप-दादा भी कभी दर्शन करने आए थे कि तुम्हीं सबसे वीर हो।

शान्तिकुमार ने उस आदमी को संभालकर कहा—बाप-दादों ने जो काम नहीं किया, क्या पोतों-परपोतों के लिए भी वर्जित है, लालाजी? बाप-दादे तो बिजली और तार का नाम तक नहीं जानते थे, फिर आज इन चीजों का क्यों व्यवहार होता है? विचारों में विकास होता ही रहता है, उसे आप नहीं रोक सकते।

समरकान्त ने व्यंग्य से कहा—इसीलिए तुम्हारे विचार में यह विकास हुआ है कि ठाकुरजी की भक्ति छोड़कर उनके द्रोही बन बैठे?

शान्तिकुमार ने प्रतिवाद किया—ठाकुरजी का द्रोही में नहीं हूं, द्रोही वह हैं जो उनके भक्तों को उनकी पूजा नहीं करने देते। क्या यह लोग हिन्दु-संस्कारों को नहीं मानते? फिर आपने मंदिर का द्वार क्यों बंद कर रखा हैं?

ब्रह्मचारी ने आंखें निकालकर कहा—जा लोग मांस-मदिरा तो खाते है, निख़िद कर्म करते हैं, उन्हें मंदिर में नहीं आने दिया जा सकता।

शान्तिकुमार ने शांतभाव से जवाब दिया—मांस-मदिरा तो बहुत-से ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य भी ख़ाते हैं। आप उन्हें क्यों नहीं किते? अग तो प्राय: सभी पीते हैं। फिर वे क्यों यहां आचार्य और पुजारी बने हुए हैं?

समरकान्त ने डंडा संभालकर कहा—यह सब यों न मानेगा। इन्हें डंडों से भगाना पड़ेगा। जरा जाकर थाने में इत्तला कर दो कि यह लोग फौजिदारी करने आए है।

इस वक्त तक बहुत-से पंडे-पुजारी जमा हो गए थे। सब-के-सब लाठियो के कुंदों में भीड़ को हटाने लगे। लोगों में भगदड़ मच गई। कोई पूरब भागा, कोई पश्चिम। शान्तिकुमार के सिर पर भी एक डंडा पड़ा पर खड़े आदमियों को समझाते रहे--भागो मत, भागो मत, सब-के-सब वहीं बैठ जाओ, ठाकुर के नाम पर अपने को बलिदान कर दो, धर्म के लिए।

पर दूसरी लाठी सिर पर इतने जोर से पड़ी कि पूरी बात भी मुंह से न निकलने पाई और वह गिर पड़े। संभलकर फिर उठना चाहते थे कि ताबड़-तोड़ कई लाठियां पड़ गई। यहां तक कि वह बेहोश हो गए।

पांच

नैना बार-बार द्वार पर आती है और समरकान्त को बैठे देखकर लौट जाती है। आठ बज गए आर लालाजी अभी तक गंगा-स्नान करने नहीं गए। नैना रात भर करवटें बदलती रही। उस