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374:प्रेमचंद रचनावली-5
 

भीषण घटना के बाद क्या वह सो सकती थी? उसने शान्तिकुमार को चोट खाकर गिरते देख पर निर्जीव-सी खड़ी रही थी। अमर ने उसे प्रारिमक चिकित्सा की मोटी-मोटी बातें सिखा दी थीं, पर वह उस अवसर पर कुछ भी तो न कर सकी। वह देख रही थी कि आदमियों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया है। फिर उसने देखा कि डॉक्टर आया और शान्तिकुमार को एक डोली पर लेटाकर ले गया; पर वह अपनी जगह से नहीं हिली। उसका मन किसी बंधुए पशु की भात बार-बार भागना चाहता था; पर वह रस्सी को दोनों हाथ से पकड़े हुए पूरे बल के साथ उसे रोक रही थी। कारण क्या था? संकोच! आखिर उसने कलेजा मजबूत किया और द्वार से निकलकर बरामदे में आ गई। समरकान्त ने पूछा—कहां जाती है?

"जरा मंदिर तक जाती हूं।"

"वहां का रास्ता ही बंद है। जाने कहां के चमार-सियार आकर द्वार पर बैठे हैं। किसी को जाने ही नहीं देते। पुलिस खड़ी उन्हें हटाने का यल कर रही है, पर अभागे कुछ सुनते ही नहीं। यह सब उसी शान्तिकुमार का पाजीपन है। आज वही इन लोगों का नेता बना हुआ है। विलायत जाकर धर्म तो खो ही आया था, अब यहां हिन्दू-धर्म की जड़ खोद रहा है। न कोई आचार न विचार, उसी शोहदे सलीम के साथ खाता-पीता है। ऐसे धर्मद्रोहियों को और क्या सूझेगी? इन्हीं सभी को सोहब्बत ने अमर को चौपट किया, इसे न जाने किसने अध्यापक बना दिया?

नैना ने दूर से ही यह दृश्य देखकर लौट आने का बहाना किया, और मंदिर की ओर चली। फिर कुछ दूर के बाद एक गली में होकर अस्पताल की ओर चल पड़ी। दाहिने-बाएँ चौकन्नी आंखों से ताकती हुई, वह तेजी से चली जा रही थे मानो चोरी करने जा रही हो।

अस्पताल में पहुंची तो देखा, हजारों आदमियों की भीड़ लगी हुई हैं, और यूनिवर्सिटी के लड़के इधर-उधर दौड़ रहे हैं। सलीम भी नजर आया। वह उसे देखकर पीछे लौटना चाहती थी कि ब्रजनाथ मिल गया--अरे नैनादेवी! तुम यहां कहां? डॉक्टर साब को रात-भरे होश नहीं रहा। सलीम और मैं उनके पास बैठे रहे। इस वक्त जाकर आंखें खोली हैं।

इतने परिचित आदमियों के सामने नैना कैसे ठहरती? वह तुरंत लौट पड़ी, पर यहां आना निष्फल न हुआ। डॉक्टर साहब को होश आ गया है।

वह मार्ग में ही थी उसने सैकड़ों आदमियों को दौड़ते हुए आते देखा। वह एक गली में छिप गई। शायद फौजदारी हो गई। अब वह घर कैसे पहुंचेगी? संयोग से आत्मानन्दजी मिल गए। नैना को पहचानकर बोले—यहां तो गोलियां चल रही हैं। पुलिस कप्तान ने आकर फैर करा दिया।

नैना के चेहरे का रंग उड़ गया। जैसे नसों में रक्त का प्रवाह बंद हो गया हो। बोली—क्या आप उधर ही से आ रहे हैं?

"हां, मरते-मरते बची। गली-गली निकल आया। हम लोग केवल खड़े थे। बस, कप्तान ने फैर कराने का हुक्म दे दिया। तुम कहां गई थीं?"

"मैं गंगा-स्नान करके लौटी जा रही थी। लोगों को भागते देखकर इधर चली आई। कैसे घर पहुंचेंगी?"

"इस समय तो उधर जाने में जोखिम है।"