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कर्मभूमि: 377
 

मंदिर-द्वार पर गए। मंदिर के दोनों द्वार खुले हुए थे। पुजारी और ब्रह्मचारी किसी का पता न था। सुखदा ने मंदिर से तुलसीदल लाकर अर्थियों पर रखा और मरने वालों के मुख में चरणामृत डाला। इन्हीं द्वारों को खुलवाने के लिए यह भीषण संग्राम हुआ। अब वह द्वार खुला हुआ वीरों का स्वागत करने के लिए हाथ फैलाए हुए है, पर ये रूठने वाले अब द्वार की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखते। कैसे विचित्र विजेता हैं। जिस वस्तु के लिए प्राण दिए, उसी से इतना विराग।

जरा देर के बाद अर्थियां नदी की ओर चलीं। वही हिन्दू--समाज जो एक घंटा पहले इन अछूतों से घृणा करता था, इस समय उन अर्थियों पर फूलों की वर्षा कर रहा था। बलिदान में कितनी शक्ति है?

और सुखदा? वह तो विजय की देवी थी। पग-पग पर उसके नाम की जय-जयकार होती थी। कहीं फूलों की वर्षा होती थी, कहीं मेव की, कहीं रुपयों की। घडी भर पहले वह नगर में नगण्य थी। इस समय वह नगर की राती थी। इतना यश बिरले ही पाते हैं। उसे इस ममय वास्तव में दोनों तरफ के ऊंचे मकान कुछ नीचे, और सड़क के दोनों ओर खड़े होने वाले मनुष्य कुछ छोटे मालूम होते थे, पर इतनी नमना, इतनी विनय उसमें कभी न थी। मानो इस यश और ऐश्वर्य के भार से उसका सिर झुका जाता हो।

इधर गंगा के तट पर चिताएं चल रही थीं, उधर मंदिर इस उत्सव के आनंद में दीपकों के प्रकाश से जगमगा रहा था, मानो वीरों की आत्माएं चमक रही हों।

छ:

दूसरे दिन मॅदर में कितना सम्मारोह हुआ, शहर में कितनी हलचल मची, कितने उत्सव मनाए गए, इसको चर्चा करने की जरूरत नहीं। सारे दिन मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहा। ब्रह्मचारी आज फिर विराजमान हो गए थे और जितनी दक्षिणा उन्हें आज मिली, उती, शायद उम्र भर में न मिली होगी। इससे उनके मन का विद्रोह बहुत कुछ शात हो गया, किंतु ची जाति वाले सज्जन अब भी मंदिर में देह बचाकर आते और नाक सिकोड़े हुए कतराकर निकल जाते थे। सुखदा मंदिर के द्वार पर खड़ी लोगों का स्वागत कर रही थी। स्त्रियों से गले मिलती थी, बालकों को प्यार करती थी और पुरुषों को प्रणाम करती थी।

कल की सुखदा और आज की सुखदा में कितना अंतर हो गया? भोग-विलास पर प्राण देने वाली रमणी आज सेवा और दया की मूर्ति बनी हुई है। इन दुखियों की भक्ति, श्रद्धा और उत्साह देख-देखकर उसका हृदय पुलकित हो रहा है। किसी की देह पर साबुत कपड़े नहीं हैं, आंखों से सूझता नहीं, दुर्बलता के मारे सीधे पांव नहीं पड़ते, र भक्ति में मस्त दौड़े चले आ रहे हैं, मानो संसार का राज्य मिल गया हो, जैसे संसार से दुख-दरिद्रता का लोप हो गया हो। ऐसी सरल, निष्कपट भक्ति के प्रवाह में सुखदा भी बही जा रही थी। प्रायः मनस्वी, कर्मशील, महत्त्वाकांक्षी प्राणियों की यहीं प्रकृति है। भोग करने वाले ही वीर होते हैं।

छोटे-बड़े सभी सुखदा को पूज्य समझ रहे थे, और उनकी यह भावना सुखदा में एक गवेमय सेवा का भाव प्रदीप्त कर रही थी। कल उसने जो कुछ किया, वह एक प्रबल आवेश