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378:प्रेमचंद रचनावली-5
 

में किया। उसका फल क्या होगा, इसकी उसे जरा भी चिंता न थी। ऐसे अवसरों पर हानि- लाभ का विचार मन को दुर्बल बना देता है। आज वह जो कुछ कर रही थी, उसमें उसके मन का अनुराग था, सद्भाव था। उसे अब अपनी शक्ति और क्षमता का ज्ञान हो गया है, वह नशा हो गया है, जो अपनी सुध-बुध भूलकर सेवारत हो जाता है, जैसे अपनी आत्मा को पा गई है।

अब सुखदा नगर की नेत्री है। नगर में जाति-हित के लिए जो काम होता है, सुख के हाथों उसका श्रीगणेश होता है। कोई उत्सव हो, कोई परमार्थ का काम हो, कोई राष्ट्र का आंदोलन हो, सुखदा की उसमें प्रमुख भाग होता है। उसका जी चाहे या न चाहे, भक्त लोग उसे खींच ले जाते हैं। उसकी उपस्थिति किसी जलसे की सफलता की कुंजी है। आश्चर्य यह है कि वह बोलने भी लगी हैं, और उसके भाषण में चाहे भाषा चातुर्य न हो, पर सच्चे उद्गार अवश्य होते हैं। शहर में कई सार्वजनिक संस्थाएं हैं, कुछ सामाजिक, कुछ राजनैतिक, कुछ धार्मिक। सभी निर्जीव-सी पड़ी थी। सुखदा के आते ही उनमें स्फूर्ति-सी आ गई हैं। मादक वस्तु-वहिष्कार-सभा बरसों से बेजान पड़ी थी। न कुछ प्रचार होता था न कोई संगठन उसका मंत्री एक दिन सुखदा को खींच ले गया। दूसरे ही दिन उस सभा की एक भजन-मंडली बन गई, कई उपदेशक निकल आए, कई महिलाएं घर-घर प्रचार करने के लिए तैयार हो गई और मुहल्ले-मुहल्ले पंचायतें बनने लगीं। एक नए जीवन की सृष्टि हो गई।

अब सुखदा को गरीबों को दुर्दशा के यथार्थ रूप देखने के अवसर मिलने लगे। अब तक इस विषय में उसे जो कुछ ज्ञाने था, वह सुनी-सुनाई बात पर आधारित थी। आरा में देखकर उसे ज्ञात हुआ, देखने और सुनने में बड़ा अंतर है। शहर की उन अंधेरी तंग गलिया में, जहां वायु और प्रकाश का कभी गुजर ही न होता था, जहां की जमीन ही नहीं, दीवारे भी सीली रहती थीं, जहां दुर्गध के मारे नाक फटती थी, भारत की कमाऊ संतान रोग और दरिद्रता के पैरों तले-दबी हुई अपने क्षीण जीवन को मृत्यु के हाथों से छीनने में प्राण दे रही थीं। उसे अब मालूम हुआ कि अमरकान्त को धन और विलास से जो विरोध था, यह कितना यथार्थ था। उसे खुद अब उस मकान में रहते, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनते, अच्छे अच्छे पदार्थ खाते ग्लानि होती थी। नौकरों से काम लेना उसने छोड़ दिया। अपनी धोती खुद छांटती र्थः घर में झाडू खुद लगाती। वह जो आठ बजे सोकर उठती थी, अब मुंह-अंधेरे उठती, और घर के काम-काज में लग जाती। नैना तो अब उसकी पूजा--सी करती थी। लालाजी अपने घर की यह दशा देख-देख कुढ़ते थे, पर करते क्या? सुखदा के यहां तो अब नित्य दरबार-मा लगा रहता था। बड़े-बड़े नेता, बड़े-बड़े विद्वान आते रहते थे। इसलिए वह अब बह से कुछ दवत थे। गृहस्थी के जंजाल से अब उनका मन ऊबने लगा था। जिस घर में उनसे किसी को सहानुभुति न हो, उस घर में कैसे अनुराग होता। जहां अपने विचारों का खेज हो, वही अपना धर है। जो अपने विचारों को मानते हों, वही अपने सगे हैं। यह घर अब उनके लिए सराय- मात्र था। सखदा या नैना, दोनों ही से कुछ कहते उन्हें डर लगता था।

एक दिन सुखदा ने नैना से कहा-बीबी, अब तो इस घर में रहने को जी नहीं चाहता। लोग कहते होंगे, आप तो महल में रहती हैं, और हमें उपदेश करती हैं। महीनों दौड़ते हो गए, सब कुछ करके हार गई, पर नशेबाजों पर कुछ भी असर न हआ। हमारी बातों पर कोई कान