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कर्मभूमि: 379
 

ही नहीं देता। अधिकतर तो लोग अपनी मुसीबतों को भूल जाने ही के लिए नशे करते हैं।वह हमारी क्यों सुनने लगे? हमारा असर तभी होगा, जब हम भी उन्हीं की तरह रहें।

कई दिनों से सर्दी चमक रही थी, कुछ वर्षा हो गई थी और पूस की ठंडी हवा आई होकर आकाश को कुहरे से आच्छन्न कर रही थी। कहीं-कहीं पाला भी पड़ गया था-मुन्ना बाहर जाकर खेलना चाहता था-वह अब लटपटाता हुआ चलने लगा था--पर नैना उसे ठंड के भय से रोके हुए थी। उसके सिर पर ऊनी कनटोप बांधती हुई बोली-यह तो ठीक है, पर उनकी तरह रहना हमारे लिए साध्य भी है, यह देखना है। मैं तो शायद एक ही महीने में मर जाऊं।

सुखदा ने जैसे मन-ही-मन निश्चय करके कहा-मैं तो सोच रही हूं, किसी गली में छोटा-सा घर लेकर रहूं। इसका कनटोप उतारकर छोड़ क्यों नहीं देतीं? बच्चों को गमलों के पौधं बनाने की जरूरत नहीं, जिन्हें लू का एक झांका भी सुखा सकता है। इन्हें तो जंगल के वृक्ष बनाना चाहिए, जो धूप और वर्षा, ओले और पाले किसी की परवाह नहीं करते।

नैना ने मुस्कराकर कहा-शुरू से तो इस तरह रखा नहीं, अब चारे की सासत करने चली हो। कहीं ठंड-खंड लग जाए, तो लेने के देने पड़े।

"अच्छा भई, जैसे चाहो रखो, मुझे क्या करना है?"

"क्यो, इसे अपने साथ उस छोटे-में घर में न रखोगी?"

"जिसका लड़का है, वह जैसे चाहे रख। मैं कौन होती हूं।"

"अगर भैया के सामने तुम इस तरह रहतीं, तो तुम्हारे चरण धो-धोकर पीते।"

सुखदा ने अभिमान के स्वर में कहा--मैं तो जो त्व थी, वही अब भी हैं। जब दादाजी से बिगड़कर उन्होंने अलग घर लिया था, तो क्या मैंने उनका साथ न दिया था? वह मुझे विलासिनी समझते थे, पर मैं कभी विलास की लौंडी नहीं रही। हां, मैं दादाजी को रुष्ट नहीं करना चाहती थी। यही बुराई मुझमें थी। मैं अब अलग रहूंगी, तो उनकी आज्ञा से। तुम देख लेना, मैं इस ढंग से प्रश्न उठाऊंगी कि वह बिल्कुल आपत्ति न करेंगे चलो, जरा डॉक्टर शान्तिकुमार को देख आवें। मुझे तो उधर जाने का अवकाश ही नहीं मिला।

नैना प्राय: एक बार रोज शान्तिकुमार को देख आती थी। हां, सुखदा से कुछ कहती ने थी। वह अब उठने-बैठने लगे थे, पर अभी इतने दुर्बल थे कि लाठी के सहारे बगैर एक पग भी न चले सकते थे। चोटें उन्होंने ख़ाई-छ: महीने से शय्या-सेवन कर रहे थे और यश सुखदा ने लूटा। वह दु:ख उन्हें और भी घुलाए डालता था। यद्यपि उन्होंने अंतरंग मित्रों से भी अपनी मनोव्यथा नहीं कहीं, पर यह कांटी खटकता अवश्य था। अगर सुखदा स्त्री न होती, और वह भी प्रिय शिष्य और मित्र की, तो कदाचित वह शहर छोड़कर भाग जाते। सबसे बड़ा अनर्थ यह था कि इन छ: महीनों में सूखदा दो-तीन बार से ज्यादा उन्हें देखने में गई थी। वह भी अमरकान्त के मित्र थे और इस नाते से सुखदा तो उन पर विशेष श्रद्धा थी।

| नैना को सुखदा के साथ जाने में कोई आपत्ति न हुई। रेणुका देवी ने कुछ दिनों से मोटर रख ली थी, पर वह रहती थी सुखदा ही की सवारी में दोनों उस पर बैठकर चलीं । मुन्ना भला क्यों अकेले रहने लगा था? नैना ने उसे भी ले लिया।

सुखदा ने कुछ दूर जाने के बाद कहा-यह सब अमीरों के चोंचले हैं। मैं चाहूं तो दो-