पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
38 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


उनसे पूछूं ? केवल एक घर में रहने का नाता है। जब वह मुझे कुछ नहीं समझते, तो मैं भी उन्हें कुछ नहीं समझती।

यह कहते हुए उसने हार को उसी डिब्बे में रख दिया, और उस पर कपड़ा लपेटकर सोने लगी। रमा ने एक बार डरते-डरते फिर कही-ऐसी जल्दी क्या है, दस-पांच दिन में लौटा देना। उन लोगों की भी खातिर हो जाएगी।

इस पर जालपा ने कठोर नेत्रों से देखकर कहा-जब तक मैं इसे लौटा ने दूंगी, मेरे दिल को चैन न आएगा। मेरे हृदय में कांटा सा खटकता रहेगा। अभी पार्सल तैयार हुआ जाता है, हाल ही लौटा दो।

एक क्षण में पार्सल तैयार हो गया और रमा उसे लिए हुए चिंतित भाव से नीचे चली।

ग्यारह

महाशय दयानाथ को जब रमा के नौकर हो जाने का हाल मालूम हुआ, तो बहुत खुश हुए। विवाह होते ही वह इतनी जल्द चेतेगा इसकी उन्हें आशा न थी। बोले-जगह तो अच्छी है। ईमानदारी से काम करोगे, तो किसी अच्छे पद पर पहुंच जाओगे। मेरा यही उपदेश है कि पराए पैसे को हराम समझना।

रमा के जी में आया कि साफ कह दूं-अपना उपदेश आप अपने ही लिए रखिए, यह मेरे अनुकूल नहीं है। मगर इतना बेहया न था।

दयानाथ ने फिर कहा-यह जगह तो तीस रुपये की थी, तुम्हें बीस ही क्यों मिले?

रमानाथ-नए आदमी को पूरा वेतन कैसे देते, शायद साल-छ: महीने में बढ़ जाय। काम बहुत है। दयानाथ-तुम जवान आदमी हो, काम से न घबड़ाना चाहिए।

रमा ने दूसरे दिन नया सूट बनवाया और फैशन की कितनी ही चीजें खरीदीं। ससुराल से मिले हुए रुपये कुछ बच रहे थे। कुछ मित्र से उधार ले लिए। वह साहबी ठाठ बनाकर सारे दफ्तर पर रोब जमाना चाहता था। कोई उससे वेतन तो पूछेगा नहीं, महाजन लोग उसका ठाठ-बाट देखकर सहम जाएंगे। वह जानता था, अच्छी आमदनी तभी हो सकती है जब अच्छा ठाठ हो। सड़क के चौकीदार को एक पैसा काफी समझा जाता है, लेकिन उसकी जगह सार्जंट हो,तो किसी की हिम्मत ही न पड़ेगी कि उसे एक पैसा दिखाए। फटेहाल भिखारी के लिए चुटकी बहुत समझी जाती है, लेकिन गेरुए रेशम धारण करने वाले बाबाजी को लजाते-लेजाते भी एक रुपया देना ही पड़ता है। भेख और भीख में सनातन से मित्रता है।

तीसरे दिन रमा कोट-पैंट पहनकर और हैट लगाकर निकला, तो उसकी शान ही कुछ और हो गई। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए। रमेश बाबू से मिलकर जब वह अपने काम का चार्ज लेने आया, तो देखा एक बरामदे में फटी हुई मैली दरी पर एक मियां साहब संदूक पर रजिस्टर फैलाए बैठे हैं और व्यापारी लोग उन्हें चारों तरफ से घेरे खड़े हैं। सामने