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382:प्रेमचंद रचनावली-5
 

क्यों?

शान्तिकुमार ने जैसे अपना सिर पत्थर से बचाया-यह तो मैंने नहीं कहा। शायद इसकी उल्टी बात हो। शायद नहीं, बल्कि उल्टी है।

"खैर, इतना तो आपने स्वीकार किया। धन्यवाद। इससे तो यही सिद्ध हुआ कि पुरुष चाहे तो विवाह करके सुखी हो सकता है।"

"लेकिन पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वहीं पशुतो उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम से वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुंचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा। वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया, इन्ही आधारों पर यह सृष्टि थमी हुई है और यह स्त्रियों के गुण हैं। अगर स्त्री इतना समझ ल, तो फिर दोनों का जीवन सुखी हो जायः स्त्री पशु के साथ पशु हो जाती है, तभी दोनों सुखी होते हैं।"

सुखदा ने उपहास के स्वर में कहा-इस समय तो आपने सचमुच एक आविष्कार कर डाला। मैं तो हमेशा यह सुनती आती हूं कि स्त्री मूर्ख है, ताड़ना के योग्य है, पुरुषों के गले का बंधन है और जाने क्या-क्या? बस, इधर से भी मरदों की जीत, उधर से भी मर्दो की जीत। अगर पुरुष नीचा है, तो उसे स्त्रियों का शासन क्यों अप्रिय लगे? परीक्षा करके देखा तो होता, आप तो दूर से ही डर गए ।

शान्तिकमार ने कछ झंपते हाए कहा-अब अगर चाह भी तो बड़ो को कौन पूछता हैं?

"अच्छा, आप बढे भी हो गए? तो किसी अपनी-जैसी बढिया से कर लीजिए न?"

"जब तुम जैसी विचारशील और अमर-जैसे गंभीर स्त्री-पुरुष में न बनी, तो फिर मुझे किसी तरह की परीक्षा करने की जरूरत नहीं रही। अमर-जैसा विनय और त्याग मुझमें नही है, और तुम जैसी उदार और"

सुखदा ने बात काले-मैं उदार नहीं हूं, न विचारशील हूं। हां, पुरुष के प्रति अपना धर्म समझती हूँ। आप मुझसे बड़े हैं, और मुझसे कहीं बुद्धिमान हैं। मैं आपको अपने बड़े भाट्ट के तुल्य समझती हूं। आज आपका स्नेह और सौजन्य देखकर मेरे चित्त को बड़ी शांति मिला। मैं आपसे बेशर्म होकर पूछती हूं, ऐसा पुरुष जो, स्त्री के प्रति अपना धर्म न समझे, क्या अधिकार है कि वह स्त्री से व्रत-धारिणी रहने की आशा रखे? आप सत्यवादी हैं। मैं आपसे पूछती हूं, यदि मैं उस व्यवहार का बदला उसी व्यवहार से दू, तो आप मुझे क्षम्य समझेगे?

शान्तिकुमार ने निश्शंक भाव से कहा- नहीं।

“उन्हें आपने क्षम्य समझ लिया?" "नहीं।" "और यह समझकर भी आपने उनसे कुछ नहीं कहा? कभी एक पत्र भी नहीं लिखा मैं पूछती हूं, इस उदासीनता का क्या कारण है? यही न कि इस अवसर पर एक नारी का अपमान हुआ है। यदि वही कृत्य मुझसे हुआ होता, तब भी आप इतने ही उदासीन रह सकते? बोलिए।"

शान्तिकुमार रो पड़े। नारो-हृदय की सचत व्यथा आज इस भीषण विद्रोह के रूप में प्रकट होकर कितनी करुण हो गई थी।