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384:प्रेमचंद रचनावली-5
 

और अपने भविष्य के संबंध में उसकी सलाह भी पछी। अभी तक उन्होंने नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया था। पर इस आंदोलन के बाद से उन्हें अपने पद पर रहना कुछ जंचता न था। उनके मन में बार-बार शंका होती, जब तुम गरीबों के वकील बनते हो, तो तुम्हें क्या हक है कि तुम पांच सौ रुपये माहवार सरकार से वसूल करो। अगर तुम गरीबों की तरह नहीं रह सकते, तो गरीबों की वकालत करना छोड़ दो। जैसे और लोग आराम करते हैं, वैसे तुम भी मजे से खाते-पीते रहो। लेकिन इस निर्द्वद्विता को उनकी आत्मा स्वीकार न करती थी। प्रश्न था, फिर गुजर कैसे हो? किसी देहात में जाकरे खेती करें, या क्या? यो रोटियां तो बिना काम किए भी चल सकती थीं; क्योंकि सेवाश्रम को काफी चंदा मिलता था, लेकिन दोन-वृत्ति को कल्पना ही से उनके आत्माभिमान को चोट लगती थी।

लेकिन पत्र लिखे चार दिन हो गए, कोई जवाब नहीं। अब डॉक्टर साहब के सिर पर एक बोझ-सा सवार हो गया। दिन-भर डाकिए की राह देखा करते, पर कोई खबर नहीं। यह बात क्या है? क्या अमर कहीं दूसरी जगह तो नहीं चला गया? सलीम ने पता तो गलत नहीं बता दिया? हरिद्वार से तीसरे दिन जवाब आना चाहिए। उसके आठ दिन हो गए। कितनी ताकीद कर दी थी कि तुरंत जवाब लिखना। कहीं बीमार तो नहीं हो गया? दूसरा पत्र लिखने की साहस न होता था। पूरे दस पने कौन लिखे? वह पत्र भी कुछ ऐसा-वैसा पत्र न था। घाहर का साल-भर का इतिहास था। वैसा पत्र फिर न बनेगा। पूरे तीन घंटे लगे थे। इधर आठ दिन से सलीम नहीं आया। वह तो अब दूसरी दुनिया में है। अपने आई सी० एस० की धुन में है। यहां क्यों आने लगी? मुझे देखकर शायद आंखें चुराने लगे। स्वार्थ भी ईश्वर ने क्या चीज पैदा को है? कहां तो नौकरी के नाम से घृणा थी। नौजवान सभा के भी मेंबर, कांग्रेस के भी मेंबर। जहां देखिए, मौजद। और मामली मेंबर नहीं, प्रमख भाग लेने वाला। कहां अब आई सो एस की पड़ी हुई है? बच्चा पास तो क्या होंगे, वहां धोखाधड़ी नहीं चलने की मगर नामिनेशन तो हो ही जाएगा। हाफिजजी पूरा जोर लगाएंगे । एक इम्तिहान में भी तो पाग न हो सकता था। कहीं परचे उड़ाए, कहीं नकल की, कहीं रिश्वत दी, पक्का शोहदा है। और ऐसे लोग आई० सी० एस० होंगे।

सहसा सलीम की मोटर आई, और सलीम ने उतरकर हाथ मिलाते हुए कहा-अब तो आप अच्छे मालूम होते हैं। चलने-फिरने में दिक्कत तो नहीं होती?

शान्तिकुमार ने शिकवे के अंदाज से कहीं-मुझे दिक्कत होती है या नहीं होती, तुम्ह इससे मतलब; महीने भर के बाद तुम्हारी सूरत नजर आई है। तुम्हें क्या फिक्र कि मैं मरी या जीता हूं? मुसीबत में कौन साथ देता है ! तुमने कोई नई बात नहीं की।

"नहीं डॉक्टर साहब, आजकल इम्तिहान के झंझट में पड़ा हुआ हूं, मुझे तो इससे नफरत है। खुद जानता है, नौकरी से मेरी रूह कांपती है, लेकिन करू क्या, अब्बाजाने हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं। वह तो आप जानते ही हैं, मैं एक सीधा जुमला ठीक नहीं लिख सकता, मगर लियाकत कौन देखता हैं? यहां तो सनद देखी जाती है। जो अफसरों का रुख देखकर काम कर सकता है, उसके लायक होने में शुबहा नहीं। आजकल यही फन सीख रहा हूं।"

शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा-मुबारक हो, लेकिन आई सी० एस० की सनद आसान नहीं है।