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कर्मभूमि: 385
 

सलीम ने कुछ इस भाव से कहा, जिससे टपक रहा था, आप इन बातों को क्या जानें- जी हां, लेकिन सलीम भी इस फन में उस्ताद है। बी० ए० तक तो बच्चों का खेल था। आई सी० एस० में ही मेरे कमाल का इम्तिहान होगा। सबसे नीचे मेरा नाम गजट में न निकले, तो मुंह न दिखाऊं। चाहूं तो सबसे ऊपर भी आ सकता हूं, मगर फायदा क्या? रुपये तो बराबर ही मिलेंगे।

शान्तिकुमार ने पूछा-तो तुम भी गरीबों का खून चूसोगे क्या?

सलीम ने निर्लज्जता से कहा--गरीबों के खून पर तो अपनी परवरिश हुई। अब और क्या कर सकता हूं? यहां तो जिस दिन पढ़ने बैठे, उसी दिन से मुफ्तखोरी की धुन समाई, लेकिन आपसे सच कहता हूं डॉक्टर साहब, मेरी तबीयत उस तरफ नहीं है। कुछ दिनों मुलाजमत करने के बाद मैं भी देहात की तरफ चलूंगा। गाएं. भैसे पालूंगा, कुछ फल-वल पैदा करूगा, पसीने की कमाई खाऊंगा। मालूम होगा, मैं भी आदमी हूं। अभी तो खटमलों की तरह दूसरों के खून पर ही जिंदगी कटेगी, लेकिन मैं कितना ही गिर जाऊं, मेरी हमदर्दी गरीबों के साथ रहेगी। मैं दिखा दूंगा कि अफसरी करके भी पब्नि की खिदमत की जा सकती है। हम लोग खानदानी किसान हैं। अब्बाजान ने अपने ही बूते से यह दौलत पैदा की। मुझे जितनी मुहब्बत रिया से हो सकती हैं, उतनी उन लोगों को नहीं हो सकती, जो खानदानी रईस हैं। में तो कभी अपने गांवों में जाता हूं, तो मुझे ऐसा मालूम होता है कि यह लोग मेरे अपने हैं। उनकी सादगी और मशक्कत देखकर दिल में उनकी इज्जत होती है। न जाने कैसे लोग उन्हें गालियां देते हैं, उन पर जुल्म करते हैं। मेरा बस चले, तो बदमाश अफसरों को कालेपानी भेज दें।

शान्तिकुमार को ऐसा जान पड़ा कि अफसरी का जहर अभी इस युवक के खून में नहीं पहुंचा। इसका हृदय अभी तक स्वस्थ है। बोले-जव हक रिया के हाथ में अख्तियार न होगा, अफसरों की यही हालत रहेगी। तुम्हारी जबान से यह खयालात सुनकर मुझे सच्ची खुशी हो रही है। मुझे तो एक भी भला आदमी कहीं नजर नहीं आता। ग* की लाश पर सब- के-सब गिद्धों की तरह जमा होकर उसकी बोटियां नोच रहे हैं, मगर अ५३ वश की बात नहीं। इसी खयाल से दिल को तस्कीन देना पड़ता हैं कि जब खुदा की मरजी होगी, तो आप ही वैसे सामान हो जाएंगे। इस हाहाकार को बुझाने के लिए दो-चार घड़े पानी डालने से तो आग और भी बढ़ेगी। इंकलाब की जरूरत है, पूरे इंकलाब की। इसलिए तो जले जितना जी चाहे, साफ हो जाय। जब कुछ जलने को बाकी न रहे, तो आग आप ठंडी हो जायगी। तब तक हम भी हाथ सेंकते हैं। कुछ अमर की भी खबर है? मैंने एक खत भेजा था, कोई जवाब नहीं आया।

सलीम ने चौंककर जेब में हाथ-डाला और एक खत निकालता हुआ बोला-लाहौल बिलाकूवत इस खत की याद ही न रही। आज चार दिन से आया हुआ है, अ५ ही में पड़ा रह गया। रोज सोचता था और रोज भूल जाता था।

शान्तिकुमार ने जल्दी से हाथ बढाकर खत ले लिया, और मीठे क्रोध के दो-चार शब्द कहकर पत्र पढने लगे-

"भाई साहब, मैं जिंदा हूं और आपको मिशन यथाशक्ति पूरा कर रहा हूँ। वहां के