पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/३८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
386:प्रेमचंद रचनावली-5
 

समाचार कुछ तो नैना के पत्रों से मुझे मिलते ही रहते थे; किंतु आपका पत्र पढ़कर तो मैं चकित रह गया। इन थोड़े से दिनों में तो वहां क्रांति-सी हो गई। मैं तो इस सारी जागृति का श्रेय आपको देता हूं। और सुखदा तो अब मेरे लिए पूज्य हो गई है। मैंने उसे समझने में कितनी भयंकर भूल की, यह याद करके मैं विकल हो जाता हूं। मैंने उसे क्या समझा था और वह क्या निकली? में अपने सारे दर्शन और विवेक और उत्सर्ग से वह कुछ न कर सका, जो उसने एक क्षण में कर दिखाया। कभी गर्व से सिर उठा लेता हूं, कभी लज्जा से सिर झुका लेता हूं। हम अपने निकटतम प्राणियों के विषय में कितने अज्ञ हैं, इसका अनुभव करके मैं रो उठता हूं। कितना महान् अज्ञान है? मैं क्या स्वप्न में भी सोच सकता था कि विलासिनी सुखदा का जीवन इतना त्यागमय हो जायगा? मुझे इस अज्ञान ने कहीं का न रख़ा। जी में आता है, आकर सुखदा से अपने अपराध की क्षमा मांगू, पर कौन-सा मुंह लेकर आऊ? मेरे सामने अंधकार है। अभेद्य अंधकार है। कुछ नहीं सूझता। मेरा सारा आत्मविश्वास नष्ट हो गया है। ऐसा ज्ञात होता है, कोई अदेखी शक्ति मुझे खिला-खिलाकर कुचल डालना चाहती है। मैं मछली की भौत काटे में फंसा हुआ हूँ। कांटा मेरे कंठ में चुभ गया है। कोई हाथ मुझे खींच लेता है। खिंची चन्ना जाता है। फिर डोर ढीली हो जाती हैं और मैं भागता हूं। अब जान पड़ा कि मनुष्य विधि के हाथ का खिलौना है। इसलिए अब उसकी निर्दय क्रीड़ा की शिकायत नहीं करूंगा। कहां है कुछ नहीं जानता, किधर जा रहा हूं, कुछ नहीं जानता। अब जीवन में कोई भविष्य नहीं है। भविष्य पर विश्वास नहीं रहा। इरादे झूठे साबित हुए, कल्पनाएं मिथ्या निकलीं। मैं अपने सत्य कहता हूं, सुखदा मुझे नचा रही हैं। उस मायावती के हाथों में कठपुतली बना हुआ है। पहले एक रूप दिखाकर उसने मुझे भयभीत कर दिया और अब दूसरा रूप दिखाकर मुझे परास्त कर रही है। कौन उसकी वास्तविक रूप हैं, नहीं जानता। सकीना का जो रूप देखा था. वह भी उसका मच्चा रूप था, नहीं कह सकता। मैं अपने ही विषय में कुछ नहीं जानता। आज क्या हूं कल क्या हो जाऊंगा, कुछ नहीं जानता। अतीत दुःखदायी हैं भविष्य स्वप्न है। मेरे लिए केवल वर्तमान हैं।

"अपने अपने विषय में मुमझ जो मलाह पूछी हैं, उसका मैं क्या जवाब दें? आप मुझसे कहीं बुद्धिमान हैं। मेरा विचार तो हैं कि सेवा -व्रतधारियों को जाति से गुजारा-केवल गुजोरा लेने का अधिकार है। यदि वह स्वार्थ को मिटा सके तो और भी अच्छा।"

शान्तिकुमार ने असताय के भाव से पत्र को मेज पर रख दिया। जिस विषय पर उन्होंने विशेष रूप से राय पूछी थी, उसे केवल दो शब्दों में उड़ा दिया।

महसा उन्होंने सलीम से पृछा-तुम्हारे पास भी कोई खुत आया है?

"जी हां, इसके साथ ही आया था।"

"कुछ मेरे बारे में लिखा था?"

“कोई खास बात तो न थी, बस यही कि मुल्क को सच्चे मिशनरियों की जरूरत हैं। और खुदा जाने क्या-क्या? मैंने खत को आखिर तक पढ़ा भी नहीं। इस किस्म की बातों को मैं पागलपन समझता हूँ। मिशनरी होने का मतलब तो मैं यही समझता हूं कि हमारी जिंदगी खैरात पर बसर हो।"

डॉक्टर साहब ने गंभीर स्वर में कहा-जिंदगी का खैरात पर बसर होना इससे कहीं