पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/३८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मभूमि: 389
 

फिर उसी उधेड़बुन में पड़ गए।

सहसा रेणुका ने कहा-आपके आश्रम में कोई कोष भी है?

आश्रम में अब तक कोई कोष न था। चंदा इतना न मिलता था कि कुछ बचत हो सकती। शान्तिकमार ने इस अभाव को मानो अपने ऊपर लांछन समझकर कहा-जी नहीं, अभी तक तो कोष नहीं बना सका, पर मैं यूनिवर्सिटी से छुट्टी पा जाऊं, तो इसके लिए उद्योग करू रेणुका ने पूछा-कितने रुपये हों, तो आपका आश्रम चलने लगे?

शान्तिकुमार ने आशश की स्फूर्ति का अनुभव करके कहा-आश्रम तो एक यूनिवर्सिटी भी बन सकता है, लेकिन मुझे तीन-चार लाख रुपये मिल जाएं, तो मैं उतना ही काम कर सकता हूं, जितना यूनिवर्सिटी में बीस लाख में भी नहीं हो सकता।

रेणुकी ने मुस्कराकर कहा-अगर आप कोई ट्रस्ट बना सकें, तो मैं आपकी कुछ सहायता कर सकती हूं। बात यह है कि जिस संपत्ति को अब तक संचती आती थी, उसका अब कोई भोगने वाला नहीं है। अमर का हाल आप देख ही चुके। सुखदा भी उसी रास्ते पर जा रही है। तो फिर मैं भी अपने लिए कोई रास्ता निकालना चाहती हूं। मुझे आप गुजारे के लिए सौ रुपये महीने ट्रस्ट से दिला दीजिएगा। मेरे जानवरों के खिलाने-पिलाने का भार ट्रस्ट पर होगा।

शान्तिकुमार डरते-डरते कहा-मैं तो आपकी आज्ञा तभी स्वीकार कर सकता हूं, जब अमरे और सुखदा मुझे सहर्ष अनुमति दें। फिर बच्चे का हक भी तो है?

सुखदी ने कहा-मेरी तरफ से इस्तीफा है। और बच्चे के दादा का धन क्या थोड़ा है? औरों की मैं नहीं कह सकती।

रेणुका खिन्न होकर बोलीं- अमर को धन की परवाह अगर है, तो औरों से भी कम। दौलत कोई दीपक तो है नहीं, जिससे प्रकाश फैलता रहे। जिन्हें उसकी जरूरत नहीं, उनके गले क्यों लगाई जाए? रुपये का भार कुछ कम नहीं होता। मैं खुद नहीं संभाल सकती। किसी शुभ कार्य में लग जाय, वह कहीं अच्छा। लाला समरकान्त तो मदर औ, शिवाले की राय देते हैं, पर मेरा जी उधर नहीं जाता, मंदिर तो यों ही इतने हो रहे हैं कि पूज करने वाले नहीं मिलते। शिक्षादान महादान है और वह भी उन लोगों में, जिनका समाज ने हमेशा बहिष्कार किया हो। मैं कई दिन में सोच रही हैं, और आपसे मिलने वाली थी। अभी मैं दो-चार महीने और दुविधा में पड़ी रहती, पर आपके आ जाने से मेरी दुविधाएं मिट गई। धन देने वालों की कमी नहीं है, लेने वालों की कमी है। आदमी यही चाहता है कि धन सुपात्रों को दे, जो दाता के इच्छानुसार खर्च करें, यह नहीं कि मुफ्त का धन पकिर उड़ाना शुरू कर दें। दिखाने को दाता की इच्छानुसार थोड़ा-बहुत खर्च कर दिया, बाकी किसी-न-किसी बहाने से घर में रख लिया।

यह कहते हुए उसने मुस्कराकर शान्तिकुमार से पूछा-आप तो धोखा न देते?

शान्तिकुमार को यह प्रश्न, हंसकर पूछे जाने पर भी बुरा मालूम हुआ-मेरी नीयत क्या होगी, यह मैं खुद नहीं जानता? आपको मुझ पर इतना विश्वास कर लेने का कोई कारण भी नहीं है।

सुखदा ने बात संभाली--यह बात नहीं है, डॉक्टर साहब ! अम्मां ने हंसी की थी।