पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/३९

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गबन : 39
 


गाड़ियों, ठेलों और इक्कों का बाजार लगा हुआ है। सभी अपने-अपने काम की जल्दी मचा रहे हैं। कहीं लोगों में गाली-गलौज हो रही है,कहीं चपरासियों में हंसी-दिल्लगी। सारा काम बड़े ही अव्यवस्थित रूप से हो रहा है। उस फटी हुई दरी पर बैठना रमा को अपमानजनक जान पड़ा। वह सीधे रमेश बाबू से जाकर बोला-क्या मुझे भी इसी मैली दरी पर बिठाना चाहते हैं? एक अच्छी-सी मेज और कई कुर्सियां भिजवाइए और चपरासियों को हुक्म दीजिए कि एक आदमी से ज्यादा मेरे सामने न आने पावे। रमेश बाबू ने मुस्कराकर मेज और कुर्सियां भिजवा दीं। रमा शान से कुर्सी पर बैठा। बूढे मुंशीजी उसकी उच्छृंखलता पर दिल में हंस रहे थे। समझ गए, अभी नया जोश है, नई सनक है। चार्ज दे दिया। चार्ज में था ही क्या, केवल आज की आमदनी का हिसाब समझा देना था। किस जिस पर किस हिसाब से चुंगी ली जाती है, इसकी छपी हुई तालिका मौजूद थी, रमा आधे घंटे में अपना काम समझ गया। बूढे मुंशीजी ने यद्यपि खुद ही यह जगह छोड़ी थी; पर इस वक्त जाते हुए उन्हें दुःख हो रहा था। इसी जगह वह तीस साल से बराबर बैठते चले आते थे। इसी जगह की बदलौत उन्होंने धन और यश दोनों ही कमाया था। उसे छोड़ते हुए क्यों न दु:ख होता। चार्ज देकर जब वह बिदा होने लगे तो रमा उनके साथ जीने के नीचे तक गया। खां साहब उसकी इस नम्रता से प्रसन्न हो गए। मुस्कराकर बोले-हरे एक बिल्टी पर एक आना बंधा हुआ है, खुली हुई बात है। लोग शौक से देते हैं। आप अमीर आदमी हैं; मगर रस्म न बिगाडिएगा। एक बार कोई रस्म टूट जाती है, तो उसका बंधना मुश्किल हो जाता है। इस एक आने में आधा चपरासियों का हक है। जो बड़े बाबू पहले थे, वह पचीस रुपये महीना लेते थे, मगर यह कुछ नहीं लेते।

रमा ने अरुचि प्रकट करते हुए कहा--गंदा काम है, मैं सफाई से काम करना चाहता हूं।

बूढ़े मियां ने हंसकर कहा-अभी गंदा मालूम होता है, लेकिन फिर इसी में मजा आएगा।

खां साहब को विदा करके रमा अपनी कुर्सी पर आ बैठा और एक चपरासी से बोली-इन लोगों से कहो, बरामदे के नीचे चले जाएं। एक-एक करके नंबरवार आवें, एक कागज पर सबके नाम नंबरवार लिख लिया करो।

एक बनिया, जो दो घंटे से खड़ा था, खुश होकर बोला-हां सरकाः यह बहुत अच्छा होगा।

रमानाथ-जो पहले आवे, उसका काम पहले होना चाहिए। बाकी लोग अपना नंबर आने तक बाहर रहें। यह नहीं कि सबसे पीछे वाले शोर मचाकर पहले आ जाए और पहले वाले खड़े मुंह ताकते रहें।

कई व्यापारियों ने कहा-हां बाबूजी, यह इंतजाम हो जाए, तो बहुत अच्छा हो। भभ्भड़ में बड़ी देर हो जाती है।

इतना नियंत्रण रमी का रोब जमाने के लिए काफी था। वणिक-समाज में आज ही उसके रंग-ढंग की आलोचना और प्रशंसा होने लगी। किसी बड़े कॉलेज के प्रोफेसर को इतनी ख्याति उम्रभर में न मिलती।

दो-चार दिन के अनुभव से ही रमा को सारे दांव ‘त मालूम हो गए। ऐसी-ऐसी बातें सूझ गई जो खां साहब को ख्वाब में भी न सूझीं थीं। माल की तौल, गिनती और परख में इतनी धांधली थी जिसकी कोई हद नहीं। जब इस धांधली से व्यापारी लोग सैकड़ों की रकम डकार जाते हैं, तो रमा बिल्टी पर एक आना लेकर ही क्यों संतुष्ट हो जाये, जिसमें आध आना