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40 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


चपरासियों का है। माल को तौल और परख में दृढ़ता से नियमों का पालन करके वह धन और कीर्ति, दोनों हीं कमा सकता है। यह अवसर वह क्यों छोड़ने लगा ? विशेषकर जब बड़े बाबू उसके गहरे दोस्त थे। रमेश बाबू इस नए रंग रूट की कार्य-पटुता पर मुग्ध हो गए। उसकी पीठ ठोंककर बोले-कायदे के अंदर रहो और जो चाहो करो। तुम पर आंच तक न आने पावेगी।

रमा की आमदनी तेजी से बढ़ने लगी। आमदनी के साथ प्रभाव भी बढ़ी। सूखी कलम घिसने वाले दफ्तर के बाबुओं को जब सिगरेट, पान, चाय या जल-पान की इच्छा होती, तो रमा के पास चले आते, उस बहती गंगा में सभी हाथ धो सकते थे। सारे दुफ्तर में रमा की सराहना होने लगी। पैसे को तो वह ठीकरा समझता है | क्या दिल है कि वाह ! और जैसा दिल है, वैसी ही जवान भी। मालूम होता है, नस-नस में शराफत भरी हुई है। बाबुओं का जब यह हाल था, तो चपरासियों और मुहर्रिरों का पूछना ही क्या? सब-के-सब रमा के बिना दामो गुलाम थे। उन गरीबों की आमदनी ही नहीं, प्रतिष्ठा भी खूब बढ़ गई थी। जहां गाड़ीवान तक फटकार दिया करते थे, वहां अब अच्छे-अच्छे की गर्दन पकड़कर नीचे ढकेल देते थे। रमानाथ की तूती बोलने लगी।

मगर जालपा की अभिलाषाएं अभी एक भी पूरी न हुई। नागपंचमी के दिन मुहल्ले की कई युवतियां जालपा के साथ कजली खेलने आई, मगर जालपा अपने कमरे के बाहर नहीं निकली। भादों में जन्माष्टमी का उत्सव आया। पड़ोस ही में एक सेठजी रहते थे, उनके यहां बड़ी धूमधाम से उत्सव मनाया जाता था। वहां से सास और बहू को बुलावा आया। जागेश्वरी गई; जालपा ने जाने से इंकार किया। इन तीन महीनों में उसने रमा से बार एक भी आभूषण की चर्चा न की, पर उसका यह एकांत-प्रेम, उसके आचरण से उत्तेजक थी। इससे ज्यादा उत्तेजक वह पुराना सूची-पत्र था, जो एक दिन रमा कहीं से उठा लाया था। इसमें भांति भांति के सुंदर आभूषणों के नमूने बने हुए थे। उनके मूल्य भी लिखे हुए थे। जालपा एकांत में इस सूची-पत्र को बड़े ध्यान से देखा करती। रमा को देखते ही वह सूची-पत्र छिपा लेती थी। इस हार्दिक कामना को प्रकट करके वह अपनी हंसी ने उड़वाना चाहती थी।

रमा आधी रात के बाद लौटा, तो देखा, जालपा चारपाई पर पड़ी है। हंसकर बोला-बड़ा अच्छा गाना हो रहा था। तुम नहीं गई, बड़ी गलती की।

जालपा ने मुंह फेर लिया, कोई उत्तर न दिया।

रमा ने फिर कहा-यहां अकेले पड़े पड़े तुम्हारी जी घबराता रहा होगा।

जालपा ने तीव्र स्वर में कहा-तुम कहते हो, मैंने गलती की, मैं समझती हूं, मैंने अच्छा किया। वहां किसके मुंह में कालिख लगती?

जालपा ताना तो न देना चाहती थी, पर रमा की इन बातों ने उसे उत्तेजित कर दिया। रोष का एक कारण यह भी था कि उसे अकेली छोड़कर सारा घर उत्सव देखने चला गया। अगर उन लोगों के हृदय होता, तो क्या वहां जाने से इंकार न कर देते?

रमा ने लज्जित होकर कहा–कालिख लगने की तो कोई बात न थी, सभी जानते हैं कि चोरी हो गई है, और इस जमाने में दो-चार हजार के गहने बनवा लेना, मुंह का कौर नहीं है।

चोरी का शब्द जबान पर लाते हुए, रमा का हृदय धड़क उठा। जालपा पति की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर रह गई और कुछ बोलने से बात बढ़ जाने का भय था; पर रमा को उसकी दृष्टि से ऐसा भासित हुआ, मानों उर्स चोरी का रहस्य मालूम है और वह केवल संकोच के